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बस इस क़दर है ख़ुलासा / अब्दुल हमीद 'अदम'

बस इस क़दर है ख़ुलासा मेरी कहानी का
के बन के टूट गया इक हुबाब पानी का

मिला है साक़ी तो रौशन हुआ है ये मुझ पर
के हज़्फ़ था कोई टुकड़ा मेरी कहानी का

मुझे भी चेहरे पे रौनक़ दिखाई देती है
ये मोजज़ा है तबीबों की ख़ुश-बयानी का

है दिल में एक ही ख़्वाहिश वो डूब जाने की
कोई शबाब कोई हुस्न है रवानी का

लिबास-ए-हश्र में कुछ हो तो और क्या होगा
बुझा सा इक छनाका तेरी जवानी का

करम के रंग निहायत अजीब होते हैं
सितम भी एक तरीक़ा है मेहरबानी का

'अदम' बहार के मौसम ने ख़ुद-कुशी कर ली
खुला जो रंग किसी जिस्म-ए-अर्ग़वानी का.