नहीं बनना मुझे समझदार
नहीं जगना सबसे पहले
मुझे तो बस एक दिन
अलसाई सी उठकर
एक लम्ऽऽबी सी अंगड़ाई लेनी है
देर तक चाय की चुस्कियों के साथ देखना है
पहाड़ी पर उगे सूरज को
सुबह की ठंडी फिर गुनगुनी होती हवा को
उतारना है भीतर तक
एक दिन
बस एक दिन
नहीं करना झाड़ू-पोंछा, कपड़े-बर्तन
कुछ भी नहीं
पड़ी रहें चीजें यूँ ही उलट पुलट
गैस पर उबली चाय
फैली ही रह जाय
फर्श पर बिखरे जूते-चप्पलों के बीच
जगह बनाकर चलना पड़े
बच्चों के खिलौने, किताबें फैली रहे घर भर में
उनके कुतरे खाए अधखाए
फल, कुरकुरे, बिस्किट
देखकर खीजूँ नहीं जरा भी
बिस्तर पर पड़ी रहें कंबलें, रजाइयाँ
साबुन गलता रहे, लाइट जलती रहे
तौलिये गीले ही पड़े रहें कुर्सियों पर
खाना मुझे नहीं बनाना
जिसका जो मन है बना लो, खा लो
गुस्साओ, झुँझलाओ, चिल्लाओ मुझ पर
जितनी मर्जी करते रहो मेरी बुराई
मैं तो एक दिन के लिए
ये सब छोड़
अपनी मनपसंद किताब
के साथ
कमरे में बंद हो जाना चाहती हूँ।