शीशे के तलवाली नाव से मंत्रमुग्ध निहारता रहा
भित्ति, मूंगा और प्रवाल पुष्पों की अलौकिक दुनिया
स्वच्छंद विचर रही थीं जहाँ अनगिनत खूबसूरत मछलियाँ
इतना अवाक! इतना चमत्कृत!
कि जुबान से एक वाह का निकलना दूभर
बस कैमरा था जो विस्मृत-सा गूँजता रहा
क्लिक की लगातार ध्वनि से
भयभीत मैं कहीं पहुँच न जाए इतना भी शोर
समुद्र के शांत-संपन्न संसार में
लौटकर पहुँच गया सीधे दोस्त के स्टूडियों में
इतना आतुर कि देख सकूँ चित्रों में तब्दील होती वह दुनिया
सामने आते ही लगा आत्मा को अप्रत्याशित झटका
चित्रों में सब था-समुद्री पुष्प, मछलियाँ और लहरों का छायाभास भी
बस सिरे से गायब था जीवन
देख न सका एकाग्रचित्त
सहसा छोड़ दिये चित्र जल से लबालब ट्रे में
एक लहर उठी और वे तैरने लगे
फूल अब लहरा रहे थे
मछलियाँ तैर रही थीं
झूठ-मूठ सही वहाँ जीवन के चिन्ह थे
मैं लौट रहा था घर खुद को भरमाता-बहलाता।