Last modified on 17 सितम्बर 2019, at 03:43

बहरा / समृद्धि मनचन्दा

बहत्तर गूँगी कविताएँ
मेरे कण्ठ में मकड़जाल बना
उल्टी लटकी हैं

अन्दर इतने सनाट्टे के बावजूद
मेरी भाषा का
एक-एक शब्द बड़बोला है

इतना कुछ कह सकने के बाद भी
हम समझ नहीं पाते
समझा नहीं पाते

अपनी आँखों की तोतली बोलियों से
जस-तस कर अर्थ जुगाड़ते हैं
सच ! हम बहरे हो चुके लोग चीख़ते बहुत हैं !