बहरी कुर्सियाँ / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

1
सभाओं में बना करते थे
वे प्राय: अध्यक्ष
अब ठूँठ बनकर रह गए।
2
देश के नौनिहाल
बाप-दादा के माल पर
पढ़ रहे फ़ातिहा।
3
बहरी कुर्सियाँ
हुई और बेहया
लाज घोलकर पी गई।
4
गुमराहों को है ग़ुरूर
नई पीढ़ी को
सिर्फ़ वे ही रास्ता दिखाएँगे।
5
सम्भावनाएँ रौंदीं सारी
फैलाकरके सूँड न्याय की
अन्धे पागल हाथी ने।
6
बिठाकर उल्लू को शीश
वे हो गए कुलीन
समझने लगे सबको
दीन और हीन ।
7
इतनी ऊँची उड़ी
महँगाई की पतंग
कि जीवन-डोर लील गई।
8
वे फैलाकर कड़वाहट के विषाणु
पढ़ाते एकता का पाठ
सिर्फ़ मूर्खों से चलती उनकी हाट ।
9
पीछे-पीछे चलकर अब तक
खुद को भेड़ बनाया
तब जाकर पिछलग्गू का
खिताब उन्होंने पाया।
10
आम आदमी हुआ हलाल
आग लगाकर
जमालो दूर खड़ी
बजा रही है गाल ।
11
तोतों का जुलूस निकाल
जागरण लाएँगे
जनता को इस तरह
गूँगा बनाएँगे।
12-भरम

उम्रभर चलते रहे
पड़ाव
मंज़िल का भरम खड़ाकर
छलते रहे।
13-निशानी

आग में गोता लगाती बस्तियाँ
इस सदी की यह निशानी
बहुत खूब!

इस पृष्ठ को बेहतर बनाने में मदद करें!

Keep track of this page and all changes to it.