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बहाना ढूँढते रहते हैं / जावेद अख़्तर

बहाना ढूँढते रहते हैं कोई रोने का
हमें ये शौक़ है क्या आस्तीं भिगोने का

अगर पलक पे है मोती तो ये नहीं काफ़ी
हुनर भी चाहिए अल्फ़ाज़<ref>शब्द</ref> में पिरोने का

जो फ़स्ल ख़्वाब की तैयार है तो ये जानो
कि वक़्त आ गया फिर दर्द कोई बोने का

ये ज़िन्दगी भी अजब कारोबार है कि मुझे
ख़ुशी है पाने की कोई न रंज खोने का

है पाश-पाश<ref>चकनाचूर</ref> मगर फिर भी मुस्कुराता है
वो चेहरा जैसे हो टूटे हुए खिलौने का

शब्दार्थ
<references/>