ठठाती हँसियों के दौर मैंने जाने हैं
कहकहे मैंने सहे हैं।
पर सार्वजनिक हँसियों के बीच
अकेली अलक्षित चुप्पियाँ
और सब की चुप के बीच
औचक अकेली सुनहली मुस्कानें
ये कुछ और हैं :
न जानी जाती हैं, न सही जाती हैं :
न मिल जाएँ तो कही जाती हैं :
जैसे असाढ़ की पहली बरसात,
शरद के नील पर बादल की रुई का पहला उजला गाला,
या उस गाले में लिपटा चमक का नगीना,
उस में बसी मालती की गन्ध।
कौन, कब, कैसे भला बताता है इन की बात?
मुँद जाती हैं आँखें, रुँधता है गला,
सिहरता है गात
अनुभूति ही मानो भीतर से भीतर को
बही जाती है, बही जाती है, बही जाती है...
नयी दिल्ली, 17 मई, 1968