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बहुत अब आँखें रो लीं / अज्ञेय

 बहुत अब आँखें रो लीं!
नामहीन-या प्रियतम?-पीड़ा की क्रीड़ाएँ हो लीं।
काँपी दूर उषा की आभा, कमल-कली में गौरव जागा-
'जीती हूँ!' अनुभूति-विकल हो मुकुलित पलकें खोलीं।

फूट पड़ा नभ का अन्तस्तल बिखरी विश्व-हृदय की हलचल;
'रोते क्यों? जी तो लो!' यों अरुणाली किरणें बोलीं।
मेरा मुरझा तनु मदिर-लाल, कट गिरा भयंकर काल-जाल,
प्रियतम! रजनी के विष-प्याले में क्या औषध घोली?

वह निशि का कृत्रिम पागलपन, प्रणय-मधुर है यह प्रातस्तन,
जीवन-मधु के ओसकणों से हम ने आँखें धो लीं!
सुरभित अनिल-हिलोरें डोलीं, चौंकीं अभिलाषाएँ भोलीं,
उर की अमर, चिरन्तन प्यासें बहुत देर अब सो लीं!

बहुत अब आँखें रो लीं!
प्रियतम! चिर-प्रणयी! अब पीड़ा की क्रियाएँ हो लीं!

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