बहुत कठिन है
पतझर में वसंत का होना
फिर भी वह होता है
तुम हँसती हो
बूढी साँसें कोंपल हो जाती हैं
झुर्री- झुर्री हुए पेड़ की
शाखाएँ गाती हैं
फिर अदेह देवा
सीने में इच्छाओं के
बीज नये बोता है
एक छुवन से
ठूँठ देह में चाहें उग आती हैं
साँसों में भी दिप-दिप करती
सखी, नेह-बाती है
जपने लगता
नये मन्त्र ढाई आखर के
चंपा पर बैठा तोता है
नीलबरन आकाश आँख में
सखी, तुम्हारी
उसे देख यादें जग जातीं
सुनो, कुँवारी
उड़ता फिरता मन
सपनों के अंतरीप पर
आपा तन खोता है