Last modified on 26 जून 2008, at 09:05

बहुत बरस हुए / गोविन्द माथुर

बहुत बरस हुए एक बच्चा था

साँवला मासूम चेहरा

छोटी-छोटी उदास आँखें

जब वह हँसता था तो उसकी आँखें

मिच जाया करती थीं

उलझे घुंघराले बाल वाला

बच्चा हँसता बहुत कम था।


बहुत बरस हुए

वह बच्चा कहीं गुम हो गया

गुम तो वह उस समय भी था

अपने आप में गुम

उसकी उदास आँखें

हमेशा कुछ ढूंढती रहती थीं

कुछ पाना चाहती थीं

रिक्त काली आँखे

कुछ भर लेना चाहती थीं


वह गुमसुम बच्चा

कभी खेलता नही था

खेलते हुए बच्चों को देखता रहता था

उसके पास अपने

खिलौने नहीं थे

न ही वह कभी

खिलौनों के लिए मचलता था


उस बच्चे को

कहानियाँ सुनने का शौक था

फिर वह कहानियाँ पढ़ने लगा

धीरे-धीरे किताबों में

गुम हो गया वह बच्चा


फिर बहुत बरस बाद

दिखाई दिया वह बच्चा

अब वह बच्चा नहीं था

किशोर हो गया था

उसकी उदास काली आँखों में

एक और रंग था

आत्मविश्वास का रंग

वह स्वप्न देखने लगा था

सोते जागते स्वप्न देखता था

फिर स्वप्नों में

गुम हो गया वह बच्चा


फिर बहुत बरस बाद

दिखाई दिया वह बच्चा

उसकी उदास काली आँखों में

एक और रंग था विद्रोह का रंग

टूट जाने और बिखर जाने का रंग


वह हँसता था तो डर लगता था

उसका चेहरा काला और कठोर था

दाँत पीसता मुटि्ठयाँ ताने

गालियाँ बकता रहता था वह बच्चा


बचपन में सुनी

सारी कहानियाँ झूठी थीं

कैशोर्य में देखे सारे स्वप्न धोखा थे


टूटन और बिखराव में

फिर कहीं गुम हो गया वह बच्चा