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बहुत संभव है / आलोक श्रीवास्तव-२

चांद तो तुम भी नहीं पाओगी
शायद प्रेम भी खो बैठो
दुखभी छू नहीं पायेगा तुम्हें
दिल के टूटने की बात तो दूर है
बहुत संभव है जीवन कट जाये ठीक-ठीक
हंसी में गुजर जायें दिन
और जिसे तुम यथार्थ कहती हो
उस सपने में रातें
एक निरापद जीवन जी लेने के बाद
शायद तुम सोचो
कुछ दार्शनिक लहजे में
बीते दिनों और छूटे संबंधों के बारे में
शायद तुम थोड़ा दुखी भी होओ
थोड़ा उदास भी

पर तुम्हारे ख़याल से बहुत दूर होगा
उस आदमी का दुख
जो शब्द में, खंडहर में, नदी-तट,
किसी जंगल, किसी भीड़, किसी गांव,
किसी शहर
सिर्फ तुम्हारे होने को जीता रहा
गढ़ता रहा अपनी कल्पना में तुम्हें
तुम्हें उठाए-उठाए अपने वजूद में

वह इस जमाने का सिसिफस
नायक नहीं था किसी प्रेमकथा का
जिस तंत्र में बिना प्रेम के भी
सुखी ज़िंदा रही हो तुम
उसी तंत्र में निरर्थक खत्म हुआ
एक हताश जीवन था ।