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बाँधना एक सुन्दर क्रिया थी / मनोज कुमार झा

उठ के न जाए कहीं रात में माँ
मैं शर्ट के कोने को माँ के आँचल से बाध लेता था
और जब वह उठती
तो जगाते थपथपाते कहती कि मैं बन्धन खोल रही हूँ
कई बार तो मुझे याद भी नहीं रहता था, सुबह मैं
सोचता हूँ काँपता हूँ कि मझनींद में माँ बच्चे को उठा रही है
स्तुति करूँगा कि वह जानती थी भरोसे को खोलना
अभी सुबह के चार बजे दरभंगा स्टेशन पर भटकते सोचते संशय में हूँ
कि किसी गाड़ी पर बैठ हो जाऊँ अज्ञात
या इन्तज़ार करूँ उस प्यारी ट्रेन का जो मुझे सही जगह पहुँचा देगी ।