रगड़ खाते हैं बाँस :
आपस में ही
क्या वे शत्रु हैं ?
अपने ही ।
या अपने भारी हो आए, कठोर
पैरों को, गहराई तक धँसी पीड़ा की
जकड़न से छुड़ाना चाहते हैं ।
हवा,
किसी आग लगी फिरकन्नी की तरह
उनके बाज़ुओं और कानों के पास
सरसराती : जैसे
किसी आवाज़ को छीलती हो ।
एक हल्ला-सा है, आपस में ही
लिपटते, रगड़ खाते जंगली बाँसों में ।
वे कहीं भी हों, शहर के किसी कोने में
किसी चौराहे पर या रास्ते के
किनारे, कुछ छुपे हुए से : आग
लगती है हमेशा, हर परिस्थिति में
जब वे झूमते हैं, और
एक दूसरे से लिपटते हैं ।
सम्बन्ध छिलते हैं
आवाज़ होती है; क्या
सँघर्ष यही है।
फिर आग बुझती भी है,
काली पड़ जाती है ।
नए बाँस अपने पूर्वजों की गाँठों से
उगते हैं, बड़े होते हैं और
एक-दूसरे से कस कर लिपट जाते हैं ।
आग का संस्कार एक है
और इतिहास भी नहीं बदलता ।
हवा,
इन्हीं के पास आकर
आवाज़ों को छीलती है ।
पूरी तरह बाँस खोखले नहीं होते
उनके भीतर ख़ालीपन ज़रूर होता है,
वे अपने पोर-पोर शरीर को
आपस में जोड़ते
उनमें से पोर-पोर
उगाते, ऊपर बढ़ते हैं ।
पोरों के भीतर के खोखलेपन का
शायद हवा को पता चल जाता है : वह
पहले बाँस को ठोक बजाकर देखती है
और तब उसके जिस्म को
छीलती हुई उसमें घुस जाना चाहती है ।
हल्ला वहीं पर होता है
आवाज़ तभी आती है ׃ एक खोखलेपन
को बाँट कर दूसरा या तीसरा
ख़ालीपन बसाती है ।
आवाज़ सरसराने की नहीं
झींकने की, फिर नफ़रत की
और फिर तब वही आग ।
क्या बाँस यह सब जानते हैं ?
और अपनी-अपनी गाँठ को खोलकर
अपने खोखलेपन को
उसी तरह उजागर कर देना चाहते हैं ।
हवा छीलती है आवाज़ को
और किर्ची हुई हवा बाँस की गाँठ के नीचे
हर खोखले तहख़ाने में
आग लगा देती है ।
इतिहास जलता है : पर समय
वह बाँस के तहख़ानों में
फिर से जा समाया है ।
रगड़ खाते हैं बाँस, क्या इसीलिए
कि वे अपने खण्ड-खण्ड समय के
इन तहख़ानों को खोल कर देखें ।
समय क्यों बार-बार और बराबर
उनके भीतर घुसता चला जाता है ।
वह अपने को
इस तरह छुपाने की यह नाकाम कोशिश
क्यों करता है, जबकि वह
समूचा का समूचा बाहर छूट गया है ।
हर जगह, हर वक़्त
समय को महसूस किया जाता है
बाहर हवा क्यों चीख़ती है ?
बाँस क्यों जल जाते हैं ?
वे शत्रु हैं किसके : ज़मीन के
हवा के या कायर समय के
और तहख़ानों में दबे इतिहास के
या अपनी विवशता को
वे एक-दूसरे के कन्धे दबा कर
सहज करना चाहते हैं : वे ठीक
करते हैं : आग लगती है तो
ठीक होता है : सब कुछ एक बार
जल जाता है ।
लेकिन अफ़सोस, ये नए बाँस
वे फिर से वैसे के वैसे ही
रह जाते हैं ।
इतिहास
अपने खोखले तहख़ाने
बना लेता है ।
वक़्त
उनकी गाँठों का सिरा
पकड़ लेता है, और
हवा अपने दाँत चबाने लगती है ।
रगड़ खाते हैं बाँस :
आपस में ही
क्या वे शत्रु हैं ?
अपने ही ।