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बागमती / बुद्धिनाथ मिश्र

अबकी फिर बागमती
घर-आँगन धो गई ।

बेजुबान झोपड़ियाँ
बौराये नाले
बरगद के तलवों में
और पड़े छाले
अँखुआये कुठलों में
मड़ुआ के दाने
कमला को भेंट हुए
ताल के मखाने

बालो पंडित जी की
मँड़ई डुबो गई ।
अबकी फिर बागमती
घर-आँगन धो गई ।

छप्पर पर रेंग चुके
कछुओं के बेटे
बीच धार बही खाट
सुजनी समेटे
पाँक में सनी गैया
ऊँघती ओसारे
चूल्हे में बैठ नाग
केंचुली उतारे

दुखनी की आँखों की कोर
फिर भिंगो गई ।
अबकी फिर बागमती
घर-आँगन धो गई ।