मगही लोकगीत ♦ रचनाकार: अज्ञात
बागों की अजब बहार, सहाना बना बागों में उतरा।
सहाने अब का मैं सेहरा सँम्हारूँ, लाले बने का मैं सेहरा सँम्हारूँ।
लड़ियों की अजब बहार, बागों की अजब बहार॥1॥
लाड़ो<ref>लाड़ली, दुलहन</ref> का दुलहा बागों में उतरा, सहाने बने का मैं जोड़ा सँम्हारूँ।
जोड़े में लगे हीरा लाल, लाड़ो का बना बागों में उतरा॥2॥
सहाने बन का मैं बीड़ा सँम्हारूँ सुरखी<ref>लाली</ref> में लगे हीरा लाल।
लाड़ो का बना बागों में उतरा, सुरखी की अजब बहार।
केसरिया बना बागों में उतरा॥3॥
सहाने बने की मैं लाड़ो सँम्हारूँ, घूँघट में लागे हीरे लाल।
लाड़ो का बना बागों में उतरा, सूरत की अजब बहार।
केसरिया बना बागों में उतरा॥4॥
शब्दार्थ
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