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बाट पर / मनोज कुमार झा

शिशु थे तो सलोने स्वप्न थे
कागज की नाव की तरह डोलते थे इधर-उधर
       जिस नाले उतर जाते वहीं नदी हो जाता
जरा सी हिलोर से भींग जाते थे पोर-पोर
       हम वे खत थे जिन्हें दुलार से पहुँचाता था नामावर

अगरचे हो उनके मतलब कुछ भी नहीं
       थिर भी न हुए पैर कि बँध गए घुँघरू
भर पेट भोजन अगर आ गया बजाना

किसी काठ से बना होगा हमारा कागज
       अब कागज को कहते कि बनो काठ
क्या करें हम-कागज बनें कि काठ
क्या चीनी नहीं सँभाल सकता गुड़ का थोड़ा सा स्वाद!