ओ मेरी माँ! मेरे पूर्वजों की माँ!
अपनी उद्दंड बेटियों को डाँटो!
तुम्हारी ये जिद्दी बेटियाँ ये धारायें उमगकर दौड़ती चली आ रही हैं
गाँव के सीमांत पर!
खेतों को, फसलों को पकड़-पकड़ लोटती है
देखो! ये ले गईं आम का बगीचा भी
याद है तुम्हें! चार साल पहले तुम्हारे खुले केशों की जटाओं जैसी ये चंचल बालिकायें
खिलखिलाती हुई ब्रह्म-वृक्षों के जोड़े में से एक को ले गयी
समझाओ इन्हें!
ऐसे दिन-दहाड़े अपने घर से इतनी दूर-दूर ना आया करें
इनके आगमन से गाँव में अकाल मृत्यु की घण्टियाँ बजती हैं
पशु-पक्षी-मनुष्य-वृक्ष अवाक इन्हें ताकते हैं
इन बिगड़ैल किशोरियों का हठ क्या बाँध को ठेलकर ही मानेगा
मेडुसा के केशों के अनगिनत सर्पमुखों-सी ये तुम्हारी लड़कियाँ जहाँ से गुजरती हैं, खेल-खलिहानों को नष्ट करती चलती हैं
दिशा-दिगन्तर को ध्वस्त करती चलती हैं।
ओ मेरी मातृमुखी माँ
अब समेटो इन्हें, वापिस बुलाकर अपनी गोद में सुलाओ