दिन ढला विवादों में रात संशयी
कह पुरानी बातों से बात कुछ नयी
इस मुर्दा घाटी में जीने की आस
होंठ चाटकर अपनी बुझा रहे प्यास
आंँखों ही आंँखों में सब- कुछ सहें
इस अंँधेर नगरी का सच क्या कहें
अजगर हैं अपनों के भेष में कई
दूर- दूर तक न कोई मीत न मेले
खाते हैं मौसम की मार अकेले
विपदा की लहरों में है घिरी सदी
अंधी सुरंगों से बह रही नदी
सिर के भी ऊपर अब हो व्यथा गई
जब यहांँ उजालों का खो गया पता
हम लड़े अंँधेरों से गीत गुनगुना
राहों ने रोका था हम रुके नहीं
मुश्किल था वक्त मगर हम झुके नहीं
कोशिशों ने दिखलायी राह इक नयी