हार गए हैं
बात न कोई बात है ।
नयी परिस्थिति की रौनक का साथ है ।
कालमेघ ने
बुद्धि-भाव की आँच को
बुझा दिया
यह झूठ है ।
फिर-फिर हरा हुआ है
पूरा सूखकर
मन
झाऊ का ठूँठ है ।
सहजधर्म की
सर्प-कुण्डली खुल रही
बीती दुःस्वप्नों की काली रात है ।
एक जुझारू
आत्मजयी हुँकार का
भीतर
हाँका चल रहा ।
सिर पर पाँव धरे
भागेंगे दैत्य-क्षण
प्रण
यक़ीन में पल रहा ।
डर का हौआ
गीदड़ ख़ाम-खयाल का
अपने आगे
इसकी कौन बिसात है ।