बात
न उत्तराखंड की है
न झारखंड की
बात
दल-बदल की भी नहीं है
और न किसी मज़हब या धर्म की।
बात दलितों के पढ़-लिखकर—
आगे बढ़ने की भी नहीं है
न बात है
खेल के मैदान में उनके
बाज़ी मारने की।
बात
मन्दिर के—
पुजारी बनाने की भी नहीं है
न बात है
पहली ईंट—
शूद्र के हाथों रखने की।
बात सत्ता के खेल की भी नहीं है
न उसका सुख भोगने की।
बात है
'दलित साहित्य' की
कहीं देश की शोषित जनता
जो
हज़ारों वर्षों से
पौराणिक कथाएँ सुन-सुनकर
सोई पड़ी है
सच्चा साहित्य पढ़कर
जाग जाए
बन्द कमरे में लिखे 'गप्पी साहित्य' की—
धज्जियाँ न उड़ जाए!