उड़ चले बादलों के विहंग पंख तोल
सागर की कारा के चमकीले द्वार खोल।
तपते दिनकर के अधर चूम
नाचे अम्बर पर झुमक-झूम
रस-भीगी पाँखों से दो बूंदें ढुलक गई
हो गया सजल धरती के मटियाले कपोल।
घायल मन की कितनी साधें
बीते कल की कितनी यादें
कर हाहाकार उठीं अधरों पर अकस्मात
पर हाय विवशता पाया मैं कुछ नहीं बोल।
गाएंगे पावस-गीत सभी
पाएंगे नूतन मीत सभी
पर ये जो मेरी दृगकोरों से छलक पड़े।
दो विवश अश्रु, आंकेगा इनका कौन मोल?
उड़ चले बादलों के विहंग निज पंख तोल।