बादल
पंख बने पर्वत के,
फड़-फड़ फड़के,
घने हुए घहराए,
लेकिन
उसको उठा न पाए,
उड़ा न पाए,
लेकर भाग न पाए,
झरे-
झार-बौछार मारकर,
पानी होकर-
बरसे पानी,
उसके चारों ओर,
देह पाहनी
शीतलकाय हुई;
यह दिन
मुझको याद रहेगा
वर्षा मंगल का।
रचनाकाल: २८-०८-१९९१