मिट पिपासा मन अतृप्त मरु जीवन करुणा सागर
सुनो हवाओं नभ से काले बादल लेकर जाओ।
बांच न पाए जीते जी खलिहानों की खामोशी
फिर निर्वाण असम्भव प्यारे क्या मगहर क्या काशी
पियो हलाहल या अमृत सम उभय परिस्थितियां ये
वैतरणी तरणार्थ न दो गंगाजल लेकर जाओ।
मनोवृत्तियों के आंगन में धूमिल नैतिकताएं
फिर कंदीलें जलें जलें या सूरज भी बुझ जाएं
जमी हुई भावों की सरिता पनघट से मरघट तक
सिंधु तिरोहित अंतस की बड़वानल लेकर जाओ।
पतझड़ की अगवानी करतीं फूलों की बागानें
लो ऋतुराज समेट ले गया अपनी भव्य दुकानें
झुलसेंगी नित नूतन पीड़ाओं या संतापों में
ओ मौसम के साथी मधुरिम कोपल लेकर जाओ।