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बाबो रेस्टूरेंट / श्रीप्रकाश शुक्ल

 
बाबो रेस्टूरेंट !
यह कौन सी बला है पूछता है कासागर
जिसके वृद्ध पिता का अभी-अभी इंतकाल हुआ था
जो मिट्टी के खिलौने बेचने शहर आया था

शहर जिसे बनारस कहते हैं
बनारस जिसे लंका कहते हैं
लंका जिसे महाशमशान कहते हैं

इसी लंका पर अपने पिता के शवदाह के लिए
आया था कासागर कफ़न खरीदने
साथ में कुछ फूल और टिकठी भी
जो अभी तक पार्श्व में आजानयुग बहुमंज़िली इमारत को संभाल रखी थी

वह ढूंढ़ रहा था इन दोनों के बीच पड़ी हुई उस गुमटी को
जहाँ पर पिछली बार आया था चाय पीने
जब अपनी माँ को लेकर आया था

उसके पास शहर भर को बताने को यही एक दुकान थी
जो उम्मीदों पर भारी थी
जहाँ कोई भी बैठकर अपने आँसुओं को पोछ सकता था
और दूसरे के आँसुओं को निहार सकता था

गुमटी उस कासागर के सपनों की गुमटी थी
जिसमें कसोरों की चमक थी
जो गाँव से शहर आने वाले हर आदमी के लिए
जीवन का सबसे बड़ा आश्वासन थी

बाबो रेस्टूरेंट के ठीक सामने खड़ा वह कासागर
अपने पिता की टिकठी को संभाले
दुआओं में भुनभुनाता हुआ
एक लंबे समय से खड़ा है
गुमटी को खोजता हुआ ।


रचनाकाल : अक्टूबर 2007