मेरे पास
एक अदद कलम है
घिसती है
इतना भर सुनने को
'नहीं तेरा कोई जवाब'
दिनभर इसी तरह पिसता हूँ
एक पिन को
अपना कह सकने के लिए
बोझ चरमराती इमारत का
सह सकने के लिए
ओ माँ
तुम क्यों सो गयी थीं
सुनाते-सुनाते
यह कहानी
ज़िंदगी एक लकीर है
सरकती है
इंच-दर-इंच
कभी दायें कभी बायें
कभी ऊपर कभी नीचे
इस कुएँ से कौन खींचे
तारीख बकलती नहीं
बदल जाते हैं
पसलियों के प्लेटफॉर्म पर खड़े
दिन के डिब्बे
उम्र ढलती नहीं
गलाई जाती है
बारह चिमनियों
वाली
इस भट्ठी में