बारिश तेज़ हो रही थी
और मेरे पास उस रोज़ छाता भी नहीं था
मैं भटकता हुआ जाने कहाँ से
उस कूचे में आन पड़ा था
जहाँ की पूरी फ़ज़ा में
मिट्टी की सोंधी ख़ुश्बू की
लपटें आ रही थीं
बोसीदा दरवाज़े और खिड़कियाँ :
मुँह खोले भीग रहे थे
बच्चों की तरह
मैं अपनी मुजल्लिद (जिल्द चढ़ी) किताब को सिर पर ओढ़े
उस चुटकी भर ओट में भीग रहा था
पानी फ़र्श पर फैल रहा था
और उसमें धुँधले साये
धुएँ की तरह ऊपर उठ रहे थे...
कोई आवाज़ नहीं थी
सिवाय पानी गिरने की आवाज़ के...
पानी धारासार गिर रहा था...
और मैं दीवार से लगा देर से भीग रहा था
कोई था जो मेरे साथ ही भीग रहा था
जिसकी मुबहम (अस्पष्ट) तस्वीर पानी पर उभरती थी
और पल में ही खो जाती थी...
कोई आवाज़ नहीं थी वहाँ
सिवाय पानी गिरने की आवाज़ के...
थोड़ी देर में मेरे दोनों पैर
बर्फ़ की तरह जम चुके थे वहाँ
उस कूचे में
जबकि पानी चलता था वहाँ
अपने सूजे हुए पाँवों पे...