Last modified on 24 जुलाई 2011, at 13:43

बारिश / पूनम सिंह

इस रेत समय में
जब झरे पीत पत्तों से
मेरे मन का आँगन पटा है
तुम ‘बारिश’ पर कविता लिखने को कह रहे हो
तुम्हें कैसे बताऊँ कि
पत्थर समय में
हरी गंध पर कविता लिखना
कितना कठिन है मेरे लिए

सच कहो-अब कब आते हैं
विरही यक्ष का प्रणय निवेदन लेकर
अषाढ़ के बादल?
कहाँ उठती है धरती की कोख से
पहली बौछार की वह सोंधी गंध?
कब लगते हैं अमराइयों में
सावन के झूले?
उल्लास का पावस
कहाँ बरसता है अछोधार
किस रेत किस खेत में?
मन के किस आँगन किस कानन में?
बताओ ना मुझे मेरे मीत

आज बारिश होती है
तो धरती की देह से फूटती है
बारूदी गंध
लाल धार बन बहने लगता है पानी
आग की लपटों
मौत की चीखों के बीच
बादलों की जल तरंग सी हँसी
मैं कैसे सुनूँ?
कैसे लिखूँ इस मरनासन्न बेला में
बारिश पर कविता
तुम्ही बोलो

याद करती हूँ बहुत उन दिनों को
जब भटकी हवाओं के साथ
कोरस गाते झूमते मंडराते
आते थे अषाढ़ के बादल
झमाझम बरसने लगता था पानी

बादलों की झुनझुने सी हँसी सुन
हा! किस तरह
पुलक से भर
आँगन के ओरियाने
कागज की नाव तैराने
नंगे पाँव दौड़ जाते थे हम
अपनी डोगियो में
उल्लास की रंग बिरंगी मछलियाँ पकड़
तब कितने खुश होते थे हम

आज घोषणाओं की बारिश में
जब तैरती है असंख्य कागज की नावें
और निरंतर बढ़ता जाता है
पानी का शोर
मैं बचपन की उस नाव को
कोशी की धार में
हिचखोले खाती देख रही हूँ
मेरा बचपन विस्थापित हो रहा है मेरे भाई
मैं ‘बारिश’ पर कविता लिखूँ
तो क्या लिखूँ-बोलो

देखो! उत्सव की तरह कैसे
मेगा शिविर में हो रही है
राहतों की बारिश
सुर्खियों में आने के लिए
किये जा रहे हैं कई जतन
सार्वजनिक झूठ के बीच
कितनी धूम से निकल रहा है
सच का जनाजा
राहतों की इस बरसात में
सूखे होठों की प्यास किस कदर बढ़ गई है
इस प्यास के आगे
कैसे लिखूँ मैं पावस की जलधार
तुम ही कहो

निष्क्रिय उत्तेजना से भरा यह
कैसा कठिन संत्रास का समय है
आकाश में मंडरा रही हैं चीलें
देश की सरहद को घेरते
हर दिशा से उठ रहे हैं काले मेघ
क्या इस सदी की यह
सबसे भीषण बरसात होगी?

आशंकाओं से घिरा व्याकुल मन लिए
मैं सोच रही हूँ
उस प्रलयंकारी जल प्रपात में
क्या ‘बारिश’ पर लिखीं कविताएं
मनु की नाव बन
हर घर तक जायेंगी
सबको पार उतारेंगी
बताओ न मेरे मीत!