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बार-बार लिख-लिखकर काटे / नईम

बार-बार लिख-लिखकर काटे,
हमने अपने नाम कबीरे!

अंतस के खोखल गह्वर में,
जाने क्या कुछ घुमड़ रहा था,
अंगुल-भर सिलने बैठा था,
पर बित्ते-भर उधड़ रहा था;

खुद होकर आया पटरी पर
मनुवाँ, लेकिन धीरे-धीरे।

जाने कैसे, किस हालत में
आ बैठा था ये खालीपन?
जैसे कहीं प्रतीक्षारत थे
कोने अँतरे सूने आँगन।

काम न आए बड़े-बड़ों के;
दिए हुए ताबीज फ़क़ीरे!

अपने कंधों अपनी अरथी,
ढोता रहा न जाने कब तक।
फिर पड़ाव आए कुछ ऐसे
झनन-झनन झन बाजे सप्तक।

मेरा मैं मुझको ही डाँटे,
फटा दूध कब हुआ दही रे!