बार-बार लिख-लिखकर काटे,
हमने अपने नाम कबीरे!
अंतस के खोखल गह्वर में,
जाने क्या कुछ घुमड़ रहा था,
अंगुल-भर सिलने बैठा था,
पर बित्ते-भर उधड़ रहा था;
खुद होकर आया पटरी पर
मनुवाँ, लेकिन धीरे-धीरे।
जाने कैसे, किस हालत में
आ बैठा था ये खालीपन?
जैसे कहीं प्रतीक्षारत थे
कोने अँतरे सूने आँगन।
काम न आए बड़े-बड़ों के;
दिए हुए ताबीज फ़क़ीरे!
अपने कंधों अपनी अरथी,
ढोता रहा न जाने कब तक।
फिर पड़ाव आए कुछ ऐसे
झनन-झनन झन बाजे सप्तक।
मेरा मैं मुझको ही डाँटे,
फटा दूध कब हुआ दही रे!