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बालिका बोध / संजीव कुमार

रुकता बढ़ता जीवन चलता,
मैं भी चलती अपनी धुन में,
चमक रहे जुगनू पल छिन के
देख रही उनको उलझन में।

कल कोई आगे बढ़कर क्या
बता सकेगा राह सुहानी,
कोई सहचर बांह पकड़कर
सुना सकेगा कथा पुरानी।

संसृति के विस्तृत पथ पर
किसकी आहट सुनती हूँ मैं,
कितने अनुभव साथ चल रहे
कितनी यादें बुनती हूँ मैं।