बिखरा सितारा / पूनम अरोड़ा 'श्री श्री'

पिछली रात वही कम उम्र ऊँट मार दिया गया
जिसके जीवित रहते
कोई उसकी घुंघरू जैसी कोमल आवाज़ कभी नहीं सुन पाया.

वह बख्शा गया था
उन नारों की दहकती अग्नि से
जिसकी रेतीली सराहना रोशनीहीन थी.

जो जुबानें उसके कंद समान माँस को
अपनी एन्द्रिक तन्द्रा में
चख पाने का रिवाज़ खोज रही थीं.
वह एक सहज आनंद तो कभी नहीं था.

वहाँ औरतों के झुंड में
अपनी पीढ़ियों पुरानी चक्की के पास
सबसे पीछे खड़ी मैं रो रही थी.

इसलिए नहीं कि अब एक उत्सव होगा आनंद का.
इसलिए भी नहीं
कि जब खुरदरी लकड़ियाँ स्वाहा होकर
अपना अस्तित्व त्याग रही होंगी
तो लोग उसके चारों तरफ मादक नृत्य कर रहे होंगे.
मेज़ों पर नए काढ़े गये मेज़पोश बिछेंगें
और जौ की शराब व्यंजनों के साथ परोसी जायेगी.

बल्कि इसलिए क्योंकि बढ़ते प्रकाश में
किसी ने नहीं देखा था उस रोज़ मादा ऊंट को संसर्गरत होते.

न किसी ने यह देखा
कि उसकी उष्ण देह के गर्भ में
एक सितारा बिखर गया है.

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