अपनेपन का मांझा
थोडा थोडा लपेटा था रोज़
जिंदगी की चरखी घुमा घुमाकर,
यहाँ वहाँ इकसार कसा हुआ।
आज भी कटी हुई पोरों पर
बाकी हैं निशान
सोचा था,
मेरी भी पतंग उड़ेगी एक दिन
छुएगी आसमान
बादलों के पार
लालसा के चटख रंग की,
सूरज के पैर में चिकोटी काट कर
लौट आएगी मेरी बाँहों में
डोर के सहारे।
मगर ये हो न सका
मेले में बिछड़े बच्चे सी
खो गयी पतंग,
कटकर गिरी किसी नदी नाले में
या पेड़ की डाल में
उलझकर फट गई
नहीं जान पाई
और, नहीं जान पाते हम
कब कोई मज़बूत मांझा
हमारी डोर को काट डाले!