आलीशान, ऊंचे महल में
चींटियाँ छिद्र ढूँढ़ती हैं
एक नौसिखुआ आलोचक
उत्तम कलाकृति की खामियाँ गिनाता है
कोई कुटिल, कुपाठी
हर प्रसंग में अपना टांग अड़ाता है
नौका में सवार मुफ्तखोर, निठल्ला
नखों से नाव में छेद बनाता है
कोई दुस्साहसी मुंह ऊपर उठाकर
आकाश पर जोर से थूकता है
बिना पूंजी के इतने सारे रोजगार हैं यहाँ
मंदबुद्धि मंदी पर मगजमारी कर रहे हैं।