बिना बात के यूँ ही अपना मिलना-जुलना,
शायद कोई गुनाह नहीं है।
नीयत पर शक करना ही है जिनका धंधा,
आसमान को टेके है जो उनका कंधा
कौन मोल ले उनसे पंगा? फरमाते हैं-
सूर आँख वाला, कबीर लेकिन है अंधा।
पेड़ों का अपनी मस्ती में हिलना-डुलना,
दर-असल कोई गुनाह नहीं है।
लोक-लाज, मर्यादाएँ गर नहीं टूटतीं,
शिवता की साँसें, नाड़ी गो नहीं छूटतीं,
तब फिर अपने राम भला कैसे मानेंगे-
रहे मंथरा, रानी फिर-फिर रहें रूठतीं।
अपने से, अपनों से थोड़ा खिलना-खुलना,
(सचमुच) शायद कोई गुनाह नहीं है।
सोच-सोचकर असमय ही क्यों मरने बैठें?
अपने श्राद्धभोज हम ही क्यों करने बैठे?
मनचीते कामों की यूँ फेहरिश्त बड़ी है-
अगर समय हो, शुभ के कलशे भरने बैठें।
बीच-बीच में अपनी कहना, उनकी सुनना,
शायद कोई गुनाह नहीं है।