झिझक की
छोटी-सी डाली को
हटाकर काँपते हाथों से
कहना
शीर्षक को तरसती
किसी तसवीर के लिए
कि न हो इसका कोई नाम
तो अच्छा है
बहुत बार
एक नाम
एक शीर्षक
रोक देता है बहाव
चाँदनी को
अपने बदन पर मलकर
इठलाती चलती
नदी का…
एक कसक
कर जाती है घर
किनारे खड़े बावरे के मन में
कि बिना शीर्षक के
बिना नाम के
कैसी होती यह नदी
कैसी होती तुम…?