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बिम्ब / गोबिन्द प्रसाद


झरते हुए पत्ते में
देखता रहा बिम्ब
अपना
सूनी आँखों में
घिरता है जैसे कभी-कभी
सपना
अँधेरा है, अकेला हूँ
घर-बच्चों से दूर
बहुत कुछ ख़ुद से भी


सुनता हूँ
      अपनी ही
आवाज़
      रगों के टूटने की
लौ की मानिन्द भभकते हैं शब्द
अव्वल-आख़िर मिट्टी को है तपना