Last modified on 17 अप्रैल 2011, at 03:15

बिम्ब : प्रतिबिम्ब / विमल कुमार

क्या मैं तुमसे इसलिए प्रेम कर रहा हूँ
कि अपना कोई बिम्ब : प्रतिबिम्ब
ढूँढ़ रहा हूँ तुम में

अपनी सुबह और शाम देख रहा हूँ
कहीं लिखा हुआ तुम्हारे भीतर
अपना नाम देख रहा हूँ

क्या मैं इसलिए तुमसे प्रेम कर रहा हूँ
अपनी आवाज़“ सुन रहा हूँ
देख रहा हूँ अपना चेहरा

तुम्हारे चेहरे में
तुम्हारे भीतर अपने घर की किवाड़ें देख रहा हूँ
खिड़कियाँ और सीढ़ियाँ...

अपना चाँद भी देख रहा हूँ तुम्हारे भीतर
अपना आसमान भी
अपने बचपन की नदी
और हवा में उड़ते बादल भी
देख रहा हूँ
क्या मैं इसलिए तुमसे प्रेम कर रहा हूँ
कि अपने सपने देख रहा हूँ
तुम्हारे सपनों में
अपनी लिखावट
तुम्हारी लिखावट में
अपना गुस्सा
तुम्हारे गुस्से में
अपनी खीझ
तुम्हारी खीझ में
अपनी बेचैनी
तुम्हारी बेचैनी में
अपनी नींद
तुम्हारी नींद में

मैं इसलिए कर रहा हूँ
तुमसे प्यार
कि अपने सीने में
लगी आग
देख रहा हूँ तुम्हारे सीने में

और जो सवाल
मुझे परेशान कर रहे हैं
वो तुम्हारे भीतर भी
सुलग रहे हैं
और जो रास्ता मैं बना रहा हूँ
वो तुम्हारे अन्दर खुल रहा है...

क्या मैं प्यार
इसलिए कर रहा हूँ
कि थोड़ी-सी उम्मीद है
तुम्हारे भीतर
मेरी तरह
और उम्मीद के सहारे ही
यह दुनिया चलती है

और यह भी एक उम्मीद ही है
तमाम तरह की नाउम्मीदों के बीच
कि यह दुनिया थोड़ी-सी
कहीं-न-कहीं बदल जाएगी ज़रूर एक दिन