उजली रेखाओं के
साँवरे चितेरे
बिम्ब कहां उतरेंगे तेरे
सम्मुख हैं दरपनी अँधेरे
छाया-सी चल रही
धूलिकण बुहारती
सड़कों की भीड़
पाँवों से छूट रहीं सतहें
जुड़ने को आ जुड़े
पक्षियों के नीड़
जागने की एक रात,
सोने को अनगिन सबेरे
सठियाई बुद्धि के
मिमियाते लोग
साथ लिए कटुता की आग
डसने को आतुर हैं
कुण्डलियाँ मारे
कुंठित अनुराग
सर्पों से ज़्यादा हैं
ज़हरी सपेरे ।