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बिहारी सतसई / भाग 10 / बिहारी

बरन बास सुकुमारता सब बिधि रही समाइ।
पँखुरी लगी गुलाब की गात न जानी जाइ॥91॥

(नायिका की) देह पर लगी गुलाब की पँखुरी पहचानी नहीं जाती-विलग नहीं देख पड़ती; क्योंकि उसका रंग और उसकी सुगन्ध तथा कोमलता गाल के रंग, सुगन्ध और कोमलता में एकदम मिल-सी गई है।


लसत सेत सारी ढप्यौ तरल तव्यौना कान।
पव्यौ मनौ सुरसरि-सलिल रबि-प्रतिबिम्बु बिहान॥92॥

तरल = चंचल। बिहान = प्रातःकाल।

उजली साड़ी से ढँका हुआ उसके कान का चंचल कर्णफूल ऐसा सोह रहा है, मानो गंगा के उज्ज्वल जल में प्रातः काल के सूर्य का (सुनहला) प्रतिबिम्ब आ पड़ा हो।

नोट - यहाँ सोने का कर्णफूल प्रातःकाल का सूर्य है, और साड़ी गंगा का स्फटिक-सा स्वच्छ जल।


सुदुति दुराई दुरति नहिं प्रगट करति रति-रूप।
छुटैं पीक औरै उठी लाली ओठ अनूप॥93॥

सुदुति = सुद्युति = सुन्दर कान्ति। रति-रूप = रति का रूप, कामदेव की स्त्री ‘रति’ अत्यन्त सुन्दर कही जाती है; अतएव यहाँ ‘रति-रूप’ से अर्थ है सौन्दर्य का अत्यन्त आधिक्य। दुराई = छिपाये।

सुन्दर कान्ति छिपाने से नहीं छिपती, वरन् (ऐसी चेष्टा करने पर) वह और भी अपरूप सौंदर्य प्रकट करती है। पान की पीक (या लाली) छुड़ाये जाने पर ओठों की अनुपम लाली और भी बढ़ गई है।

नोट - नायिका अपने ओठ की ललाई को पान की लाली समझकर बार-बार उसे छुड़ा रही है; किन्तु ज्यों-ज्यों पान की लाली छुटती है, त्यों-त्यों उसके ओठ की स्वाभाविक लाली और भी खिलती जाती है।


कुच-गिरि चढ़ि अति थकित ह्वै चली डीठि मुँह-चाड़।
फिरि न टरी परियै रही परी चिबुक की गाड़॥94॥

कुच = स्तन। डीठि = दृष्टि = नजर। चाड़ = चाह। परियै रही = पड़ी रही। चिबुक = ठुड्डी। गाड़ = गढ़ा।

स्तन-रूपी (ऊँचे) पर्वत पर चढ़, अत्यन्त थककर, दृष्टि-मुख (देखने) की चाह में (आगे) चली। (किन्तु रास्ते में ही) ठुड्डी के गढ़े में वह (इस प्रकार) जा गिरी कि (उसी में) उड़ी रह गई, (वहाँ से) पुनः (इधर-उधर) टली नहीं।

नोट - ‘चिबुक की गाड़’ पर एक संस्कृत कवि की उक्ति का आशय है कि ब्रह्मा ने सुन्दरी स्त्री को जब पहले-पहल बनाया, तब उसके रूप पर आप ही इतने मुग्ध हुए कि ठुड्डी पकड़कर भर-नजर देखने लग गये। उसी समय कच्ची मूर्त्ति की ठुड्डी उनके अँगूठे से दब गई। वही गढ़ा हो गया!


ललित स्याम-लीला ललन चढ़ी चिबुक छबि दून।
मधु छाक्यो मधुकर पर्‌यौ मनौ गुलाब-प्रसून॥95॥

ललित = सुन्दर। स्याम-लीला = गोदने की बिन्दी। दून = दूना। मधु छाक्यौ = रस पीकर तृप्त। मधुकर = भौंरा। प्रसून = फूल।

सुन्दर गोदने की (कोली) बिन्दी से, हे ललन! उसकी (गुलाबी) ठुड्डी की शोभा दूनी बढ़ गई है, (जान पड़ता है) मानो मधु पीकर मस्त भौंरा गुलाब के फूल पर (बेसुध) लेटा हुआ है।

नोट - ‘पद्माकर’ के इसी भाव के एक कवित्त का पद है- ‘कैधों अरबिन्द में मलिन्दसुत सोयो आय, गरक गोविन्त कैधों गोरी की गुराई मकें।’ अपने ‘तिल-शतक’ में मुबारक कवि तिल को यों प्रणाम करते हैं-

गोरे मुख पर तिल लसै, ताको करौं प्रणाम।
मानहु चंद बिछाय के पौढ़े सालीग्राम॥


डारे ठोढ़ी-गाड़ गहि नैन-बटोही मारि।
तिलक-चौंधि मैं रूप-ठग हाँसी-फाँसी डारि॥96॥

ठोढ़ी = ठुड्डी, चिबुक। चिलक = चमक, कान्ति।

(शरीर की) कान्ति की चकाचौंध में सौन्दर्य-रूपी ठग ने हँसी-रूपी फाँसी डाल (दर्शक के) नेत्र-रूपी बटोही को मारकर उसे ठुड्डी-रूपी गढ़े में डाल रक्खा है। यह स्याम-लीला (गोदना की काली बिन्दी) उसी की लाश है।

नोट - एक उर्दू कवि ने भी ‘तिल’ को आशिक का ‘जलाभुना दिल’ कहा है। क्या खूब है!


तो लखि मो मन जो लही सो गति कही न जाति।
ठोढ़ी-गाड़ गड़्यौ रहत दिन-राति॥97॥

मन गड़्यौ = मन बसना, मन डूबा रहना। मन उड़्यौ = मन उड़ना, मन उचटा रहना, कहीं मन न लगना।

तुम्हें देखकर मेरे मन ने जो चाल पकड़ी है, वह (चाल) कही नहीं जाती-अजीब चाल है। यद्यपि वह तुम्हारी ठुड्डी के गढ़े में गड़ा (धँसा) रहता - तल्लीन रहता है, तो भी दिन-रात उड़ता-उचटा ही रहता है-चंचल ही बना फिरता है!

नोट - यहाँ कवि ने ‘मन का गड़ना’ और ‘मन का उड़ना’ इन दोनों मुहाविरों का प्रयोग अच्छा भिड़ाया है।


लौंनै मुँह दीठि न लगै यौं कहि दीनौ ईठि।
दूनी ह्वै लागन लगी दियैं दिठौना दीठि॥98॥

लौने = लावण्यमय। ईठि = हितैषिणी। दिठौना = काजल की बिन्दी; नजर लग जाने के डर से स्त्रियाँ काजर की बिन्दी लगाती हैं।

हितैषिणी सखी ने- ‘इस लावण्ययुक्त मुखड़े पर कहीं किसी की नजर न लग जाय’ (ऐसा) कहकर डिठौना लगा दिया। किन्तु उस गोरे मुखड़े पर काजल का काला डिठौना देने से लोगों की नजर दुगुनी होकर लगने लगी- लोग और भी चाव से घूरने लगे।


पिय तिय सों हँसिकै कह्यौ लखै दिठौना दीन।
चन्द्रमुखी मुख चन्दु तैं भलौ चन्द सम कीन॥99॥

सों = से। दिठौना दीन = डिठौना लगाये हुए। तैं = से।

डिठौना लगाये हुए देखकर प्रीतम ने अपनी प्रियतमा से हँसकर कहा- हे चन्द्रमुखी! (काला ढिठौना लगाकर) चन्द्रमा के समान (धब्बेदार) कलंकित बना लेने पर भी, (तुम्हारा) मुख, चन्द्रमा से अच्छा ही है।


गड़े बड़े छबि-छाकु छकि छिगुनी छोर छुटैं न।
रहे सुरँग रँग रँगि वही नह दी मँहदी नैन॥100॥

छबि = शोभा। छाकु = नशा। छकि = भर-पेट पीकर। छिगुनी = कनिष्ठा अँगुली, कनगुरिया। सुरँग = लाल। नह दी = नँह में दी गई, नख में लगाई गई। मँहदी = मेंहदी।

सौंदर्य की मदिरा पीकर खूब ही गड़ रहे हैं, छिगुनी की छोर छोड़ते ही नहीं। यहाँ तक कि उसी (छिगुनी के) नँह में लगी मेंहदी के लाल रंग में ये नेत्र रँग भी गये हैं-उसके ध्यान में लाल भी हो गये हैं!