सूर उदित हूँ मुदित मन मुखु सुखमा की ओर।
चितै रहत चहुँ ओर तें निहचल चखनु चकोर॥101॥
सूर = सूर्य। सुखमा = सौंदर्य, शोभा। निहचल चखनु = अटल दृष्टि से, टकटकी लगाकर।
सूर्य के उदय हो जाने पर भी आनन्दित मन से उसके मुख के सौंदर्य की ओर (उसे चन्द्र-मंडल समझकर) चकोर टकटकी लगाये चारों ओर से देखता रहता है।
पत्राहीं तिथि पाइयै वा घर कैं चहुँ पास।
नित प्रति पून्यौई रहत आनन-ओप उजास॥102॥
पत्रा = तिथि पत्र। नित प्रति = हर रोज। पून्यौई = पूर्णिमासी ही। आनन = मुख। ओप = चमक। उजास = प्रकाश।
उस नायिका के घर के चारों ओर पत्रा (पंचांग) ही में तिथि पाई जाती है- तिथि निश्चय कराने के लिए पत्रा ही की शरण लेनी पड़ती है; क्योंकि (उसके) मुख की चमक और प्रकाश से वहाँ सदा पूर्णिमा ही बनी रहती है- उसके मुख की चमक और प्रकाश देखकर लोग भ्रम में पड़ जाते हैं कि पूर्ण चन्द्र की चाँदनी छिटक रही है।
दोहा संख्या 103 से 108 तक यहाँ जोड़े जाने बाकि हैं
पाइ महावरु दैन कौं नाइनि बैठी आइ।
फिरि फिरि जानि महावरी एड़ी मीड़ति जाइ॥109॥
महावरी = महावर लगी हुई। फिरि फिरि = बार-बार।
(उस नायिका के) पाँव में महावर लगाने के लिए नाइन आ बैठी। किन्तु (उसकी एड़ी स्वाभाविक रूप से इतनी लाल थी कि) वह बराबर उसे महावर लगी हुई जानकर माँज-माँजकर धोने लगी।
नोट - पैरों में महावर लगाने के पूर्व पहले की लगी हुई महावर धो दी जाती है।
कौहर-सी एड़ीनु की लाली देखि सुभाइ।
पाइ महावरु देइ को आपु भई बे-पाइ॥110॥
कौहर = एक जंगली लाल फल। सुभाय = स्वाभाविक। देइ को = कौन दे, कौन लगावे। बे-पाय = हक्का-बक्का, विस्मय-विमुग्ध।
लाल कौहर फल के समान उसकी एड़ियों की स्वाभाविक लाली देखकर, पैर में महावर कौन लगावे? नाइन स्वयं हक्का-बक्का (किंकर्त्तव्य विमूढ़) हो गई!