किय हाइलु चित चाइ लगि बजि पाइल तुव पाइ।
पुनि सुनि सुनि मुँह-मधुर-धुनि क्यों न लालु ललचाइ॥111॥
हाइलु = घायल। चाय = चाह, चाट। पायल = पाजेब
तेरे पैरों की पाजेब बजकर चित्त में चाह उत्पन्न करती और घायल बनाती है। फिर मुख की मीठी बोली सुन-सुनकर लाल (नायक) क्यों न लालच में पड़ जाय?
सोहव अँगुठा पाइ कै अनुवटु जर्यौ जराइ।
जीत्यौ तरिवन-दुति सुढरि पव्यौ तरनि मन पाइ॥112॥
पाइ के = पैर के। अनवटु = पैर के अँगूठे में पहनने का आभूषण-विशेष। जराइ = जड़ाव, नगीना। तरिवन = कर्णफूल। तरनि = सूर्य।
नगीने जड़ा हुआ पैर के अँगूठे का अनवट शोभा रहा है। (वह ऐसा लगता है) मानो कर्णफूलों की प्रभा से पराजित हो सूर्य उस (नायिका) के पाँवों पर लुढ़क पड़ा हो!
पग पग मग अगमन परत चरन-अरुन-दुति झूलि।
ठौर ठौर लखियत उठे दुपहरिया-से फूलि॥113॥
पथ में पग-पग पर आगे की ओर (जहाँ पैर पड़ने को हैं) पैर की लाल प्रभाा झड़-सी पड़ती है- जहाँ वह अपना पैर उठाकर रखना चाहती है, वहीं उसके तलवे की लाली पृथ्वी पर प्रतिबिम्बित होने लगती है- (वह ऐसी) देख पड़ती है, मानो जगह-जगह दुपहरिया के (लाल-लाल) फूल फुल उठे हों!
दुरत न कुच बिच कंचुकी चुपरी सारी सेत।
कवि-आँकनु के अरथ लौं प्रगटि दिखाई देत॥114॥
कंचुकी = स्तनों के कसने की चोली। चुपरी = चिपटी हुई, सुगंधित सटी या कसी हुई। सेत = सफेद। आँकनु = अक्षरों, शब्दों।
सटी हुई उजली सारी और कंचुकी के भीतर स्तन नहीं छिपते। कवि के शब्दों के अर्थ के समान वे साफ देख पड़ते हैं।
नोट - यों ही एक कवि ने स्त्री के कंचुकी-मण्डित कुच और कवि के गूढ़ार्थ-भाव-संवलित शब्दों की तुलना करते हुए कहा है-
कवि-आखर अरु तिय-सुकुच अध उघरे सुख देत।
अधिक ढके हू सुखद नहिं उघरे महा अहेत॥
भई जु छबि तन बसन मिलि बरनि सकैं सु न बैन।
आँग-ओप आँगी दुरी आँगी आँग दुरै न॥115॥
सु = सो, वह। ओप = कान्ति, प्रभा। आँगी = अँगिया, चोली। दुरी = छिप गई।
वस्त्र से मिलकर उसके शरीर की जो छबि हुई, वह वचन द्वारा नहीं वर्णन की जा सकती- उसके वर्णन में वाणी (मुग्धता या असमर्थता के कारण) मूक हो जाती है। (उसके) अंग की कान्ति से (उसकी) चोली ही छिप गई, चोली से अंग (स्तन) न छिप सके!
नोट - पीताम्बर की चोली अंग की चम्पक कान्ति में छिप गई।
भूषन पहिरि न कनक कै कहि आवत इहि हेत।
दरपन कैसे मोरचे देह दिखाई देत॥116॥
कनक = सोना। कहि आवत इहि हेत = इसलिए कहा जाता है। मोरचे = धब्बे।
सोने के गहने तू न पहन, यह इसलिए कहा जाता है कि (वे गहने) दर्पण में लगे धब्बे के समान (तेरी) देह में (भद्दे) देख पड़ते हैं।
मानहु बिधि तन-अच्छ-छबि स्वच्छ राखिबैं काज।
दृग-पग पोंछन को करे भूपन पायन्दाज॥117॥
अच्छ = अच्छी। दृग पग = नजर के पैर। पायन्दाज = बँगले के दरवाजे पर रक्खा हुआ पैर पोंछने का टाट, पायपोश।
मानो ब्रह्मा ने (नायिका के) शरीर की सुन्दर कान्ति को स्वच्छ रखने के निमित्त के पैर पोंछने के लिए भूषण-रूपी पायन्दाज बनाये हैं- (ताकि देखनेवालों की नजर के पैरों की धूल से कहीं अंग की कान्ति न मलिन हो जाय। इसलिए भूषण-रूपी पायन्दाज बनाया कि अंग पर पड़ने से पहले नजरें अपने पैरों की धूल साफ कर लें!)
नोट - एक सुरसिक ने इसका उर्दू अनुवाद यों किया है-
निगाहों के कदम मैली न कर दें चाँदनी तन की।
ये जेवर तूने पहने हैगे पायन्दाज की सूरत॥
सोनजुही-सी जगमगति अँग-अँग-जोवन-जोति।
सुरँग कसूँभी चूनरी दुरँग देह-दुति होति॥118॥
सोनजुही = पीली चमेली। जोबन = जवानी। सुरँग = लाल। कसूँभी = कुसुम रंग की, लाल। देह-दुति = शरीर की कान्ति।
सोनजुही के समान उसके अंग-अंग में जवानी की ज्योति जगमगा रही है। (उस पर) कुसुम में रँगी हुई लाल साड़ी (पहनने पर) शरीर की कान्ति दुरंगी हो जाती है-लाल और पीले के संयोग से अजीब दुरंगा (नारंगी) रंग उत्पन्न होता है।
छिप्यो छबीलौ मुँह लसै नीलै अचर-चीर।
मनौ कलानिधि झलमलै कालिन्दी कैं नीर॥119॥
छिप्यो = ढँका हुआ। छबीलौ = सुन्दर। नीलै अंचर-चीर = नीली साड़ी का अ=ँचरा। कलानिधि = चन्द्रमा। कालिन्दी = यमुना।
नीले अंचल में ढँका हुआ सुन्दर मुखड़ा (ऐसा) शोभ रहा है, मानो चन्द्रमा (नीले जल वाली) यमुना के पानी में झलक रहा हो-अपनी प्रभा बिखेर रहा हो।
लसै मुरासा तिय-स्रवन यौं मुकुतन दुति पाइ।
मानहु परस कपोल कैं रहे सेद-कन छाइ॥120॥
मुरासा = कर्णफूल। मुकुतन = मुक्ताओं, मोतियों। परसे = स्पर्श। कपोल = गाल। सेद = स्वेद। कन = कण, बिन्दु।
मोतियों की कान्ति पाकर (मुक्ता-जटित) कर्णफूल, नायिका के कानों में यों शोभते हैं, मानो (उसके) गालों के स्पर्श से (उन कर्णफूलों पर) पसीने के कण छा रहे हों।
नोट - धन्य बिहारी! तुमने प्राणहीन कर्णफूलों पर भी स्त्री के गालों के सौंदर्य का जादू डाल ही दिया! कोमल कपोलों के स्पर्श से कर्णफूलों के भी पसीने निकल आये-सात्विक भाव हो आया!