Last modified on 19 मार्च 2017, at 11:52

बिहारी सतसई / भाग 20 / बिहारी

भृकुटी-मटकनि पीत-पट चटक लटकती चाल।
चल चख-चितवनि चोरि चितु लियौ बिहारीलाल॥191॥

भृकुटी = भँव। चटक = चमक। लटकती चाल = इठलाती चाल। चल = चंचल। चख = आँखें। चोरि लियौ = चुरा लिया।

भँवों की मटकन, पीताम्बर की चमचमाहट, मस्ती की चाल और चंचल नेत्रों की चितवन से बिहारीलाल (श्रीकृष्ण) ने चित्त को चुरा लिया।


दृिग उरझत टूटत कुटुम जुरत चतुर-चित प्रीति।
परत्ति गाँठि दुरजन हियैं दई नई यह रीति॥192॥

दृग = आँख। उरझत = उलझती है, लड़ती है। टूटत कुटुम = सगे सम्बन्धी छूट जाते हैं। जुरत = जुड़ता है; जुटता है। हियैं = हृदय। दई = ईश्वर। नई = अनोखी।

उलझते हैं नेत्र, टूटता है कुटुम्ब! प्रीति जुड़ती है चतुर के चित्त में, और गाँठ पड़ती है दुर्जन के हृदय में! हे ईश्वर! (प्रेम की) यह (कैसी) अनोखी रीति है!

नोट - साधारण नियम यह है कि जो उलझेगा, वही टूटेगा; जो टूटेगा, वही जोड़ा जायगा; और जो जोड़ा जायगा, उसीमें गाँठ पड़ेगी। किन्तु यहाँ सब उलटी बातें हैं, और तुर्रा यह कि उलटी होने पर भी सत्य हैं। यह दोहा बिहारी के सर्वोत्कृष्ट दोहों में से एक है।


चलत घैरु घर घर तऊ घरी न घर ठहराइ।
समुझि उहीं घर कौं चलै भूलि उहीं घर नाइ॥193॥

घैरु = निन्दा, चबाव। तऊ = तो भी। समुझि = जान-बूझकर। उहीं = उसी (नायक के घर को)।

घर-घर में निन्दा (की चर्चा) चल रही है-सब लोग निंदा कर रहे हैं-तो भी वह घड़ी-भर के लिए (अपने) घर में नहीं ठहरती। जान-बूझकर उसी (नायक) के घर जाती है, और भूलकर भी उसीके घर जाती है (प्रेमांध होने से निन्दा की परवा नहीं करती)।


डर न टरै, नींद न परै हरै न काल बिपाकु।
छिनकु छाकि उछकै न फिरि खरौ विषमु छवि-छाकु॥194॥

काल बिपाकु = निश्चित समय का व्यतीत हो जाना। छाकि = पीकर। उछकै = उतरै। फिरि = पुनः। खरौ = अत्यन्त। विषमु = विकट, विलक्षण। छबि = सौंदर्य। छाक = मदिरा, नशा।

डर से दूर नहीं होता, नींद पड़ती नहीं, समय की कोई निश्चित अवधि बीतने पर भी नष्ट नहीं होता। थोड़ा-सा भी पीने से फिर कभी नहीं उतरता। (यह) सौंदर्य का नशा अत्यन्त (विकट या) विलक्षण है।

नोट - नशा डर से दूर हो जाता है, उसमें नींद भी खूब आती है, तथा एक निश्चित अवधि में दूर भी हो जाता है। किन्तु सौंदर्य (रूप-मदिरा) के नशे में ऐसी बातें नहीं होती। यह वह नशा है, जो चढ़कर फिर उतरना नहीं जानता।


झटकि चढ़ति उतरति अटा नैंकु न थाकति देह।
भई रहति नट कौ बटा अटकी नागर नेह॥195॥

झटकि = झपटकर। अटा = कोठा, अटारी। नैंकु = अरा। अटकी = फँसी हुई। नागर = चतुर। नेह = प्रेम। बटा = बट्टा।

झपाटे के साथ कोठे पर चढ़ती और उतरती है। (उसकी) देह (इस चढ़ने-उतरने में) जरा भी नहीं थकती। चतुर (नायक) के प्रेम में फँसी वह नट का बट्टा बनी रहता है-जिस प्रकार नट अपने गोल बट्टे को सजा उछालता और लोकता रहता है, उसी प्रकार वह भी ऊपर-नीचे आती-जाती रहती है।


लोभ लगे हरि-रूप के करी साँटि जुरि जाइ।
हौं इन बेंची बीच हीं लोइन बड़ी बलाइ॥196॥

साँटि करी = सौदे की बातचीत कर डाली। जुरी जाइ = मिलकर। हौं = मुझे। लोइन = लोचन, आँखें।

श्रीकृष्ण के रूप के लोभ में पड़ (उनकी आँखों से) मिलकर (मेरी आँखों ने) सट्टा-पट्टा किया-सौदे की बातचीत की। (और बिना मुझसे पूछताछ किये ही!) इन्होंने मुझे बीच ही में बेच डाला-ये आँखें बड़ी (बुरी) बला हैं!


नई लगनि कुल की सकुच बिकल भई अकुलाइ।
दुहूँ ओर ऐंची फिरति फिरकी लौं दिन जाइ॥197॥

सकुच = संकोच, लाज। ऐंची फिरति = खिंची फिरती है। फिरकी = चकरी नामक काठ का एक खिलौना, जिसमें डोरी बाँधकर लड़के नचाते फिरते हैं। लौं = समान। दिन जाइ = दिन कटते हैं।

(प्रेम की) नई लगन (एक ओर) है और कुल की लाज (दूसरी ओर) है। (इन दोनों के बीच पड़कर) वह घबराकर व्याकुल हो गई है। (यों) दोनों ओर खिंची फिरती हुई (उस नायिका के) दिन चकरी के समान व्यतीत होते हैं।


इततैं उत उततैं इतैं छिनु न कहूँ ठहराति।
जक न परति चकरी भई फिरि आवति फिरि जाति॥198॥

जक = कल, चैन। फिरि = पुनः। चकरी = एक खिलौना, फिरकी।
इधर-से-उधर और उधर-से इधर (आती-जाती रहती है)। एक क्षण भी कहीं नहीं ठहरती। (उसे) कल नहीं पड़ती। चकरी की तरह पुनः आती और पुनः जाती है।


तजी संक सकुचति न चित बोलति बाकु कुबाकु।
दिन-छिनदा छाकी रहति छुटतु न छिन छबि छाकु॥199॥

बाकु कुबाकु = सुवाच्य कुबाच्य, अंटसंट। छिनदा = रात। छाकी रहति = नशे में मस्त रहती है। छिनु = क्षण भर के लिए। छबि = सौंदर्य। छाकु = नशा, मदिरा।

डर छोड़ दिया। चित्त में लजाती भी नहीं। अंटसंट बोलती है। दिन-रात नशे में चूर रहती है। एक क्षण भी सौंदर्य (रूप-मदिरा) का नशा नहीं उतरता।


ढरे ढार तेहीं ढरत दूजै ढार ढरैं न।
क्यौं हूँ आनन आन सौं नैना लागत नै न॥200॥

ढार = ढालू जमीन। आनन = मुख। आन = दूसरा। नै = झुककर।

(जिस) ढार पर ढरे हैं- उसी ओर ढरते हैं, दूसरी ढार पर नहीं ढरते-जिस ढालू जमीन की ओर लुढ़के हैं, उसी ओर लुढ़केंगे, दूसरी ओर नहीं। किसी भी प्रकार दूसरे के मुख से (परे) नयन झुककर नहीं लग सकते-दूसरे के मुख को नहीं देख सकते।

नोट - ‘प्रीतम’ ने इसका उर्दू अनुवाद यों किया है-

ढले ही ढाल को तजकर किसी साँचे नहीं ढलते।
ये नैना आन आनन पर किसी सूरत नहीं चलते॥