चिलक चिकनई चटक सौं लफति सटक लौं आइ।
नारि सलोनी साँवरी नागिन लौं डँसि जाइ॥251॥
चिलक = चमक। चिकनई = चिकनाहट। चटक = चटकीलापन। सौ = सहित। सटक = बेंत वा बाँस की मुलायम छड़ी। सलोनी = लावण्ययुक्त। लौं = समान।
चमचमाहट, चिकनाहट और चटकीलेपन सहित बेंत की छड़ी-सी लचकती हुई (मेरे पास) आकर वह साँवले शरीर वाली लावण्यवती नायिका (मुझे) नागिन के समान डँस जाती है।
रह्यौ मोहु मिलनौ रह्यौ यौं कहि गहैं मरोर।
उत दै सखिहिं उराहनौ इत चितई मो ओर॥252॥
गहैं मरोर = मुड़ गई। उत = उधर। चितई = देखा।
”प्रेम भी गया और मिलना भी गया“ -ऐसा कहकर वह मुड़-सी गई- अपना मुँह फेर-सा लिया। और (इस प्रकार) उधर सखी से उलहना देकर (पुनः) इधर मेरी ओर (कटाक्ष करते हुए) देखा।
नहिं नचाइ चितवति दृगनु नहिं बोलति मुसुकाइ।
ज्यौं-ज्यौं रूखी रुख करति त्यौं-त्यौं चितु चिकनाइ॥253॥
दृगनु = आँखें। रूखी = उदासीन, शुष्क। रुख = चेहरा, भाव।
आँखों को नचाकर नहीं देखती-आँखों से भावमंगी नहीं करती, और मुस्कुराकर बोलती भी नहीं। किन्तु इस प्रकार ज्यों-ज्यों वह अपना रुख रूखा करती है- ज्येां-ज्यों वह रुखाई प्रकट करती है-त्यों-त्यों (मेरा) चित्त चिकनाता ही है-प्रेम से स्निग्ध ही होता है।
नोट - प्रेमिका के क्रोध से प्रेमी असन्तुष्ट नहीं। रुखाई से चित्त के रुखड़े होने की जगह चिकना होना कवि की वर्णन-चातुरी प्रकट करता है।
सहित सनेह सकोच सुख स्वेद कंप मुसकानि।
प्रान पानि करि आपनैं पान धरे मो पानि॥254॥
स्वेद = पसीना। कंप = काँपना। पानि करि = हाथ में करके। पान = बीड़ा। मो = मेरे। पानि = हाथ।
प्रेम, संकोच, सुख, पसीना, कंपन और मुस्कुराहट सहित-(प्रेम में पगी, लाज में गड़ी, सुख में सनी, पसीने से भिगी, काँपती और मुस्कुराती हुई) मेरे प्राण को अपने हाथ (वश) में करके (उस नायिका ने) मेरे हाथ में पान (का बीड़ा) रक्खा।
चितवनि भोरे भाइ की गोरैं मुँह मुसुकानि।
लागति लटकि अली गरैं चित खटकति नित आनि॥255॥
चितवनि = देखना। भाइ = भाव। नित = नित्य। आनि = आकर।
भोलेभाले भाव से देखना, गोरे-गोरे मुख से मुस्कुराना और लचक-लचककर सखी के गले लग जाना- (उस नवयुवती की ये सारी चेष्टाएँ) मेरे चित्त में नित्य आकर खटकती हैं।
छिनु-छिनु मैं खटकति सु हिय खरी भीर मैं जात।
कहि जु चली अनहीं चितै ओठन ही बिच बात॥256॥
खरी = अत्यन्त। अनहीं चितै = बिना देखे ही।
भारी भीड़ में जाते हुए उसका मेरी ओर बिना देखे ही (और) ओठों के बीच में ही बात कहकर चला जाना (मेरे) हृदय में प्रत्येक क्षण खटकता है (कि न जाने उसने यों धीरे-धीरे कौन-सी गोपनीय बात कही?)
चुनरी स्याम सतार नभ मुँह ससि की उनहारि।
नेहु दबावतु नींद लौं निरखि निसा-सी नारि॥257॥
सतार = + तार = तारा सहित। नभ = आकाश। ससि = चन्द्रमा। उनहारि = समान। नेह = प्रेम। लौं = समान। निसाा = रात्रि।
काली चुनरी ही तारों से भरा आकाश है और मुखड़ा चन्द्रमा के समान है। (इस चन्द्र और तारे-भरे आकाश से युक्त) रात्रि के समान स्त्री को देखकर नींद के समान प्रेम आ दबोचता है-बरबस प्रेम हो ही जाता है, जैसे रात में नींद आ ही जाती है।
मैं लै दयौ सु कर छुवत छिनकि गौर नीरु।
लाल तिहारौ अरगजा उर ह्वै लग्यौ अबीरु॥258॥
लै = लेकर। सु = वह। छिनिक गौ = छन-से सूख गया। सुगन्धित और शीतल पदार्थों से तैयार किया हुआ एक प्रकार का लेप।
मैंने लेकर (उसे) दिया। (यों) हे लाल, तुम्हारा (मेरे द्वारा भेजा हुआ लाल रंग का) अंगराग उस (विरहिणी) के हृदय में अबीर होकर लगा- (बिरह-ज्वाला के कारण पानी सूख जाने से वह लाल अरगजा का गीला लेप सूखा अबीर बन गया।)
तौपर वारौं उरबसी सुन राधिके सुजान।
तू मोहन कैं उर बसी ह्वै उरबसी समान॥259॥
बारौं = निछावर करूँ। उरबसी = उर्वशी नामक अप्सरा। सुजान = चतुर। उर बसी = हृदय में बसी। ह्वै = होकर। उरबसी = गले में पहनने का एक आभूषण, हैकल, माला या हार।
हे सुचतुरे राधिके! सुन, (मैं) तुझपर उर्वशी (अप्सरा) को निछावर करती हूँ- तुम्हारे सामने उर्वशी की कीमत कुछ नहीं, (क्योंकि) तू हार के समान श्रीकृष्ण के हृदय में बसी है।
हँसि उतारि हिय तैं दई तुम जु तिहिं दिना लाल।
राखति प्रान कपूर ज्यौं वहै चुहटिनी माल॥260॥
हिय = हृदय। तिहिं = उस। चुहटिनी = गुंजा, करजनी।
हे लाल! तुमने जो उस दिन हँसकर अपने हृदय से (माला) उतारकर दी सो उसी गुंजों की माला ने उसके कपूर के समान प्राण को (विलीन होने से) बचा रक्खा है।
नोट - गुंजा के साथ कपूर खाने से नहीं उड़ता।