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बिहारी सतसई / भाग 31 / बिहारी

हितु करि तुम पठयौ लगैं वा बिजना की बाइ।
टली तपनि तन की तऊ चली पसीना न्हाइ॥301॥

पठयौ = पठाया, भेजा। बिजना = पंखा। बाइ = हवा। टली = दूर हुई तपनि = जलन, ताप। तऊ = तो भी। न्हाइ चली = शराबोर हो गई।

तुमने हित करके (पंखा) भेजा। उस पंखे की हवा लगने से (उसके) शरीर की जलन तो दूर हो गई-शरीर की (विरहाग्नि) ज्वाला तो शान्त हो गई, तो भी (तुम्हारा प्रेम स्मरण कर) वह पसीने से नहा गई-प्रेमावेश में उसका शरीर पसीने से तर हो (पसीज) गया।


नाँउ सुनत ही ह्वै गयौ तनु औरै मनु और।
दबै नहीं चित चढ़ि रह्यौ अबै चढ़ाऐं त्यौर॥302॥

दबै = छिपे। चित चढ़ि रह्यौ = हृदय में रम रहा है। चढ़ाऐं त्यौर = त्यौरियाँ (भौंह) चढ़ाने से, क्रोध प्रकट करने से।

(नायक का) नाम सुनते ही (तुम्हारा) शरीर कुछ और हो गया, मन कुछ और हो गया-शरीर और मन (दोनों) में विचित्र परिवर्त्तन हो गया। वह चित्त में चढ़े हुए (नायक) का प्रेम अब त्यौरियाँ चढ़ाने से (क्रोध दिखलाने से) नहीं छिप सकता।


नैकौ उहिं न जुदी करी हरषि जु दी तुम माल।
उर तैं बास छुट्यौ नहीं वास छुटै हूँ लाल॥303॥

नैकौ = तनिक भी। उहिं = उसे। जुदी करी = अलग किया, जुदा किया। हरषि जु दी तुम = तुमने जो प्रसन्न होकर दी। बास = बसेरा। बास = गंध।

प्रसन्न होकर जो तुमने (उसे अपनी) माला दी, वह उसे जरा भी अलग नहीं करती। हे लाल! गन्ध के नष्ट हो जाने पर भी (उस माला का) हृदय का वास (स्थान) नहीं छूटा-सूखकर निर्गन्ध हो जाने पर भी वह माला उसके गले में ही विराज रही है।


परसत पोंछत लखि रहतु लगि कपोल कैं ध्यान।
कर लै प्यौ पाटल विमल प्यारी पठए पान॥304॥

परसत = स्पर्श करता है, छूता है। लखि रहत = देखता रहता है। ध्यान लगि = ध्यान करके। कर = हाथ। प्यौ = प्रीतम। पाटल = गुलाब का फूल। बिमल = स्वच्छ, सुन्दर। पठए = भेजा।

प्रीतम ने (प्यारी का भेजा हुआ) सुन्दर गुलाब का फूल हाथ में लेकर (बदले में) प्यारी के पास पान भेज दिया। (और इधर प्रेम-वश उस गुलाब के फूल को वह) स्पर्श करता है, पोंछता है और (प्यारी के) गालों का ध्यान करके (उसे एकटक) देखता है।

नोट - नायिका ने गुलाब का फूल भेजा कि इसी गुलाब के रंग के सामन मैं तुम्हारे प्रेम में रँगी हूँ। नायक ने उत्तर में पान भेजा कि यद्यपि बाहर से प्रकट नहीं है, तथापित इस पान के छिपे रंग के समान मैं भी तुम्हारे प्रेम-रंग में शराबोर हूँ। प्रेम का रंग लाल (खूनी) माना जाता है।


मनमोहन सौं मोहु करि तूँ घनस्याम निहारि।
कुंजबिहारी सौं बिहरि गिरिधारी उर धारि॥305॥

निहारि = देखना। बिहरि = विहार करना। धारि = धारण करना।

(मोह-प्रेम-ही करना है तो) तू मनमोहन से मोह (प्रेम) कर। (देखना ही चाहती है तो) घनश्याम को देख। (विहार ही करना चाहती है तो) कुंजबिहारी के साथ विहार कर और (धारण ही करना चाहती है तो) गिरिधारी को हृदय में धारण कर।

नोट - मनमोहन, घनश्याम, कुंजबिहारी, गिरिधारी आदि श्रीकृष्ण के नाम है। सभी नाम उपयुक्त स्थान पर प्रयुक्त हैं-प्रेम करने के लिए मनमोहन, देखने के लिए श्यामसुन्दर, विहार करने के लिए वृन्दावनविहारी और धारण करने के लिए गिरिधारी-कैसा चमत्कार है!


मोहिं भरोसौ रीझिहैं उझकि झाँकि इक बार।
रूप रिझावनहारु वह ए नैना रिझवार॥306॥

उझकि = उचककर, जरा उठकर। रिझावनहार = चित्त को आकृष्ट करने वाले। रिझवार = रीझनेवाले, रूप देखकर लुब्ध होने वाले।

मुझे (पूरा) भरोसा है कि (तुम देखते ही) रीझ जाओगी- (आसक्त हो जाओगी)। एक बार उचककर झाँको-जरा सिर उठाकर देखो तो सही। (नायक का) वह रूप रिझानेवाला है-आसक्त (मोहित) करने वाला है, और तुम्हारी ये आँखें रीझनेवाली हैं-आसक्त (मुग्ध) हो जाने वाली हैं।


कालबूत-दूती बिना जुरै न और उपाइ।
फिरि ताकैं टारै बनै पाकैं प्रेम लदाइ॥307॥

कालबूत = मेहराब बनाने के समय उसके नीचे ईंट, लकड़ी आदि का दिया हुआ भराव जो मेहराब के पुख्ता हो जाने पर हटा दिया जाता है। जुरै = छुटे, जमे। और = दूसरा। टारै बनै = अलग करना ही पड़ता है। पाकैं = पक जाने पर, पक्का हो जाने के बाद। लदाइ = मेहराब का लदाव।

कालवूत-रूपी दूती के बिना दूसरे उपाय से (प्रेम) नहीं जुड़ता। फिर प्रेम-रूपी लदाव (मेहराब) के पक जाने पर-भली भाँति जुट जाने पर-उसे (भराव-रूपी दूती को) अलग करना ही पड़ता है (अर्थात् जब तक पूर्ण रूप से प्रेम स्थापित नहीं हो जाता, तभी तक दूती की आवश्यकता रहती है।)


गोप अथाइनु तैं उठे गोरज छाई गैल।
चलि बलि अलि अभिसार की भली सँझौखैं सैल॥308॥

गोप = ग्वाले। अथाइनु = बाहर की बैठक। गोरज = गोधूलि, साँझ समय गौओं के घर लौटते समय उनके खुर-प्रहार से उड़नेवाली धूलि। गैल = राह। बलि = बलैया लेना। अभिसार = वह समय जब नायिका छिपकर अपने प्रेमी से संकेतस्थल पर मिलने जाती है। सँझौखैं सैल = संध्या समय की सैर।

गोप लोग (बाहर की) बैठकों से उठ गये। राह में गोधूलि छा गई। सखी! मैं बलैया जाऊँ, चलो, अभिसार के िलिए साँझ समय की सैर बड़ी अच्छी होती है- (कोई देखने सुनने वाला रह ही न गया, रास्ता भी गोधूलि से अंधकारमय हो गया, अतएवं प्रीतम से मिलने का यह बड़ा अच्छा अवसर है।)


सघन कुंज घन घन तिमिरु अधिक अँधेरी राति।
तऊ न दुरिहै स्याम व दीप-सिखा-सी जाति॥309॥

सघन = घना। घन = मेघ। घन = घना। तिमिर = अंधकार। तऊ = तो भी। दुरिहै = छिपेगी। दीप-सिखा = दिये की लौ।

कुंज सघन हैं- अत्यन्त घने हैं। मेघ भी घने हैं-बादल भी खूब उमड़ रहे हैं। फलतः इस अँधेरी रात में अंधकार और भी अधिक हो गया है। तो भी हे श्याम! वह दीपक की लौ के समान (चमकती हुई नायिका) जाती हुई न छिप सकेगी-इतने अंधकार में भी इसकी देह की द्युति देखकर लोग जान ही जायँगे कि वह जा रही है।


फूली-फाली फूल-सी फिरति जु बिमल बिकास।
भोरतरैयाँ होहु तैं चलत तोहि पिय पास॥310॥

फूली-फाली = विकसित और प्रफुल्लित। विमल = स्वच्छ। भोर = प्रातः काल, उषाकाल। तरैया = तारे, तारिकाएँ।

जो (तारिकाएँ) फूल के समान विकसित और प्रफुल्लित स्वच्छ प्रकाश के साथ (अकाश में) फिर रही हैं। प्रीतम के पास तुम्हारे चलते ही (वे सब) भोर की तारिकाएँ हो जायँगी-तुम्हारे मुखचन्द्र के प्रकाश से वे सब फीकी पड़ जायँगी।