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बिहारी सतसई / भाग 33 / बिहारी

लाई लाल बिलोकियैं जिय की जीवन-मूलि।
रही भौन के कोन मैं सोनजुही-सी फूलि॥321॥

लाई = ले आई। जिय = प्राण। जीवन-मूलि = संजीवनी बूटी। भौन = घर। सोनजुही = पीली चमेली। फूलि = प्रफुल्ल, प्रसन्न।

हे लाल! मैं बुला लाई हूँ, अपने प्राण की संजीवनी बूटी को देखिए-जिसके लिए आपके प्राण निकल रहे थे, उस (प्राण-संचारिणी) नवयुवती को देखिए। (उधर) घर के कोने में वह पीली चमेली के समान फूल रही है- पीली चमेली के समान देह वाली युवती आपकी प्रतीक्षा में आनन्द-विभोर हो खड़ी है।


नहि हरि-लौं हियरो धरौ नहि हर-लौं अरधंग।
एकत ही करि राखियै अंग-अंग प्रत्यंग॥322॥

हरि = विष्णु। लौं = समान। हियरो = हृदय में। हर = महादेव। अरधंग = आधा अंग। एकत = एकत्र। प्रत्यंग = प्रति अंग।

न तो विष्णु के समान (इस नायिका को लक्ष्मी की तरह) हृदय से लगाकर रक्खो, और न शिव के समान (इसे पार्वती की भाँति) अर्द्धांगिनी (बनाकर रक्खो)। (वरन् इसके) प्रत्येक अंग को (अपने) अंग-अंग से एकत्र (सटा) करके ही रक्खो (इसे अपने में इस प्रकार लीन बना लो कि इसका अस्तित्व ही न रह जाय)।


रही पैज कीनी जु मैं दीनी तुमहिं मिलाइ।
राखहु चम्पक-माल लौं लाल हियैं लपटाइ॥323॥

पैज = प्रतिज्ञा। चम्पक = चम्पा। हियैं = हृदय में।
मैंने जो प्रतिज्ञा की थी सो रह गई-पूरी हो गई-तुमसे (इस नायिका को) मिला दिया। अब हे लाल! इसे चम्पा की माला के समान अपने गले में लिपटाकर रक्खो।


रही फेरि मुँह हेरि इत हितु-समुहैं चितु नारि।
डीठि परत उठि पीठ की पुलकैं कहैं पुकारि॥324॥

हेरि = देखना। इत = इधर, मेरी ओर। हितु-समुहैं = प्रेमी के सामने। चित = हृदय। डीठि = दृष्टि, नजर। पुलकैं = रोमांच।

मुँह फेरकर इधर देख रही हो, (किन्तु) हे बाले! (तुम्हारा) चित्त तो अपने प्रेमी के सामने है। यद्यपि तुम मेरी ओर देख रही हो, किन्तु तुम्हारा मन सामने खड़े हुए नायक की ओर है। (नायक की) नजर पड़ते ही (प्रेमावेश में तुम्हारी) पीठ की पुलकें उठकर (पीठ के रोंगटे खड़े होकर) यह बात पुकार-पुकारकर कह रही हैं।


दोऊ चाह भरे कछू चाहत कह्यौ कहैं न।
नहि जाँचकु सुनि सूम लौं बाहिर निकसत बैन॥325॥

चाह = प्रेम। सूम = कंजूस, कृपण, वरकट। जाँचकु = भिक्षुक, मँगता। लौं = समान। बैन = वचन।

दोनों चाह से भरे-प्रेम में पगे-(एक दूसरे को) कुछ कहना चाहते हैं किन्तु कह नहीं सकते। चायक के आने की खबर सुनकर सूम के समान उनके वचन बाहर नहीं निकलते-जिस प्रकार याचक के आने की खबर सुनकर सूम घर से बाहर नहीं निकलता, उसी प्रकार उन दोनों के वचन भी मुख से बाहर नहीं होते।


लहि सूनैं घर करु गहत दिखादिखी की ईठि।
गड़ी सुचित नाहीं करति करि ललचौंही डीठि॥326॥

लहि = पाकर। सूने = शून्य, एकान्त, अकेला। करु = हाथ। ईठि = इष्ट, प्रेम। ललचौंही = ललचानेवाली।

(उसकी मेरी) देखादेखी की ही प्रीति थी-बातें तक नहीं हुई थीं, केवल वह मुझे देखती थी और मैं उसे देखता था, इसी में प्रेम हो गया था। (एक दिन) सूने घर में (उसे) पाकर (मैंने उसकी) बाँह पकड़ी। उस समय वह आँखें ललचौंही बनाकर ‘नाहीं-नाहीं’ करती हुई मेरे चित्त में गड़ गई-बाँह पकड़ते ही अभिलाषा-भरी आँखों से उसने जो ‘नहीं-नहीं’ की सो हृदय में गड़ रही है।


गली अँधेरी साँकरी भौ भटभेरा आनि।
परे पिछानै परसपर दोऊ परस पिछानि॥327॥

साँकरी = तग, पतली। भौ भटभेरा = मुठभेड़ हुई, टक्कर लड़ी। आनि = आकर। पिछाने = पहचाने। परस पिछानि = स्पर्श की पहचान से।

(नायिका नायक से मिलने जा रही थी और नायक नायिका से मिलने आ रहा था कि इतने ही में) पतली और अँधेरी गली में आकर (दोनों की) मुठभेड़ हो गई-एक दूसरे से टकरा गये।(और टकराते ही शरीर के) स्पर्श की पहचान से दोनों परस्पर पहचान गये-एक दूसरे को स्पर्श करके ही एक दूसरे को पहचान गया।


हरषि न बोली लखि ललनु निरखि अमिलु सँग साथु।
आँखिनु ही मैं हँसि धर्यौ सीस हियै धरि हाथु॥328॥

ललन = प्यारे, श्रीकृष्ण। अमिलु = बेमेल, अनजान। हियै = हृदय।

संगी-साथियों को अपरिचित जान श्रीकृष्ण को देखकर प्रसन्न होने पर भी कुछ बोली नहीं। हाँ आँखों में ही हँसकर (अपना) हाथ (पहले) हृदय पर रख (फिर उसे) सिर पर रक्खा- (अर्थात्) हृदय में बसते हो, प्रणाम करती हूँ! (खासी सलामी दगी!)


भेटत बनै न भावतो चितु तरसतु अति प्यार।
धरति लगाइ-लगाइ उर भूपन बसन हथ्यार॥329॥

भावतो = प्यारे। तरसतु = ललचता है। बसन = कपड़े। उर = हृदय।

अपने प्यारे से भेंटते नहीं बनता-दिन होने के कारण गुरुजनों के सम्मुख भेंट नहीं कर पाती- और अत्यन्त प्रेम के कारण चित्त तरस रहा है। (अतएव उनके) गहनों, कपड़ों और हथियारों को हृदय से लगा-लगाकर रखती है।

नोट - सैनिक पति बहुत दिनों पर घर लौटा है। दिन होने के कारण वह बाहर की बैठक में ही रह गया और अपने आभूषण, वस्त्र और अस्त्र-शस्त्र घर भेज दिये। उस समय उसकी स्त्री की दशा का वर्णन इस दोहे में है।


कोरि जतन कोऊ करौ तन की तपनि न जाइ।
जौ लौं भीजे चरि लौं रहै न प्यौ लपटाइ॥330॥

कोरि = करोड़। तपनि = ताप, ज्वाला। जौ लौं = जब तक। भीजे चीर = तर या गीला कपड़ा। लौं = समान। प्यौ = प्रिय, प्रीतम।

करोड़ों यत्न कोई क्यों न करो, किन्तु उस (वियोगिनी) के शरीर की ज्वाला न जायगी-(विरहाग्नि) नहीं शान्त होगी। जब तक कि भींगे हुए चीर के समान (उसका) प्रीतम (उससे) लिपटकर न रहे।