मोहूँ सौं बातनु लगैं लगी जीभ जिहि नाँइ।
सोई लै उर लाइयै लाल लागियतु पाँइ॥391॥
मोहूँ सौं = मुझसे भी। नाँइ = नाम। उर = हृदय।
मुझसे भी बातें करते समय (तुम्हारी) जीभ जिसके नाम पर लगी है-अकस्मात् जिसका नाम तुम्हारे मुख से निकल गया है-उसीको लेकर हृदय से लगाओ। हे लाल! मैं तुम्हारे पाँव लगती हूँ-पैरों पड़ती हूँ।
लालन लहि पाऐं दुरै चोरी सौंह करैं न।
सीस चढ़े पनिहा प्रगट कहैं पुकारैं नैन॥392॥
लहि पाऐं = पकड़े जाने पर। दुरैं = छिपै। सौंह = शपथ। पनिहा = चोर पकड़ने वाले तांत्रिक। सीस चढ़े पुकारैं = बिना पूछे ही आप-से-आप बता रहे हैं।
हे लाल! पकड़े जाने पर शपथ करने से भी चोरी नहीं छिपती। ये तुम्हारे नेत्र पनिहा के समान सिर चढ़कर पुकार-पुकार स्पष्ट कह रहे हैं-तुम्हारे अलसाये हुए नेत्र देखने से ही सब बातें प्रकट हो जाती हैं (कि तुम कहीं रात-भर रमे हो)।
तुरत सुरत कैसैं दुरत मुरत नैन जुरि नीठि।
डौंड़ी दै गुन रावरे कहति कनौड़ी डीठि॥393॥
सुरत = समागम, मैथुन। मुरत = मुड़ते हैं। नीठि = मुश्किल से। डौंड़ी दैं = ढोल बजाकर। रावरे = आपके। कनौड़ी = लज्जित, अधीन। डीठि = दृष्टि
तुरत किया हुआ समागम कैसे छिप सकता है? (प्रमाण लीजिए-आपके अलसाये हुए) नेत्र मुश्किल से (मेरे नेत्रों से) जुड़ते हैं, और (फिर तुरत ही) मुड़ जाते हैं-मेरे सामने मुश्किल से आपकी आँखें बराबर होती हैं। आपकी यह लज्जित दृष्टि ही ढोल बजा-बजाकर आपके गुणों को कह रही है।
मरकत-भाजन-सलिल गत इंदु-कला कैं बैख।
झीन झगा मैं झलमलत स्यामगात नख-रेख॥394॥
मरकत = नीलमणि। भाजन = बर्तन। सलिल = जल। गत = में, अदर बेख = वेष = रूप, यहाँ समानता-सूचक है। झीन = महीन, बारीक। झगा = जामा, अँगरखा। नख-रेख = नख की रेखा, नख की खरौंट।
(श्रीकृष्ण के) साँवले शरीर में (समागम के समय राधा द्वारा दी गई) नख की रेखा नीलमणि के बर्तन में भरे हुए जल में द्वितीया के चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब के समान, महीन जामे के भीतर से झलमला रही है।
नोट - श्यामसुन्दर का श्याम शरीर नीलमणि का पात्र है। बारीक श्वेत वस्त्र का जामा उस (मणि-पात्र) में रक्खा गया (स्वच्छ) जल है और नख की रेखा दूज का चाँद है।
वैसीयै जानी परति झगा ऊजरे माँह।
मृगनैनी लपटी जु हिय बेनी उपटी वाँह॥395॥
बेनी = लम्बी चोटी। उपटी = दबकर दाग पड़ गया।
मृगनैंनी (नायिका) के हृदय में लिपटने से बाँह में जो (उसकी) वेणी का निशान पड़ गया है, सो उज्ज्वल जामे के अन्दर से वैसे ही स्पष्ट जान पड़ता है-दीख पड़ता है।
वाही की चित चटपटी धरत अटपटे पाइ।
लपट बुझावत बिरह की कपट भरेऊ आइ॥396॥
चटपटी = चाह। अटपटे = उलटे-सीधे। लपट = ज्वाला।
चित्त में तो उसी (अन्य स्त्री) की चाह लगी है। अतएव, पैर अटपटे पड़ते हैं-यथास्थान ठीक नहीं पड़ते। यों कपट से भरा हुआ भी-(यद्यपि मन दूसरी स्त्री से लगा है, तो भी केवल तसल्ली देने के लिएि ही)-(वह नायक) विरह की ज्वाला बुझा जाता है।
कत बेकाज चलाइयति चतुराई की चाल।
कहे देति यह रावरे सब गुन निरगुन माल॥397॥
कत = क्यों। बेकाज = व्यर्थ। निरगुन माल = बिना डोरे की माला। चतुराई की चाल चलाइयति = चालाकी-भरी बातें करते हो।
क्यों व्यर्थ चतुराई की बातें करते हो? यह बिना डोरे की माला ही आपके सब गुणों को कहे देती है (कि आपने किसी अन्य स्त्री का गाढ़ालिंगन किया है, जिससे उसकी छाती की माला का निशान बिना डोरी की माला के ऐसा आपकी छाती में गड़ गया है।)
पावक सो नयननु लगै जावक लाग्यौ भाल।
मुकुरु होहुगे नैंकु मैं मुकुरु बिलोकौ लाल॥398॥
पावक = आग। जावक = महावर। मुकुरु होहुगे = मुकर (नठ) जाओगे। नैंकु = जरा, तुरत, एक क्षण में। मुकुरु आईना।
आपके मस्तक में लगा हुआ (किसी दूसरी स्त्री के पैर का) महावर (मेरे) नेत्रों में आग के समान (लाल) मालूम पड़ता है। एक क्षण में ही तुम मुकर (इन्कार कर) जाओगे, अतएव हे लाल! आईने में देख लो।
रही पकरि पाटी सु रिस भरै भौंह चितु नैन।
लखि सपने पिय आन-रति जगतहुँ लगत हियैं न॥399॥
रिस = क्रोध। आन-रति = पर-स्त्री प्रसंग करते हुए। हियै = हृदय से।
पलँग की पाटी पकड़कर रह गई। भौंह, मन और नेत्र क्रोध से भर गये-भौंहें तिरछी हुईं, मन रोषयुक्त हुआ और आँखें लाल हो गईं। स्वप्न में प्रीतम को दूसरी स्त्री से समागम करते देख जगने पर भी (निकट ही सोये हुए प्रीतम के) हृदय से नहीं लगती।
रह्यौ चकित चहुँधा चितै चितु मेरो मति भूलि।
सूर उयै आए रही दृगनु साँझ-सी फूलि॥400॥
चहुँधा = चारों ओर। सूर = सूर्य। दृगनु = आँखें।
ये (नायक) चकित होकर चारों ओर देख रहे हैं-भेद खुलने के भय से इधर-उधर ताक-झाँक कर रहे हैं। हे मेरे चित! तुम मत भूलो। देखो, ये सूर्योदय के समय तो आये हैं, किन्तु इनकी आँखें संध्या-सी फूल रही हैं- लाल-लाल हो रही है। (अतएव, निस्संदेह रात-भर कहीं जगे हैं।)