बिथुर्यौ जावकु सौति पग निरखि हँसी गहि गाँसु।
सलज हँसौंहीं लखि लियौ आधी हँसी उसाँसु॥471॥
बिथुर्यौ = पसरा हुआ। जावकु = महावर। गाँसु गहि = ईर्ष्या से, डाह से। उसाँसु = ऊँची साँस, उसाँस, दीर्घ निःश्वास।
(अपनी) सौतिन के पैरों में पसरा हुआ महावर देख (उसे फूहड़ समझ) ईर्ष्या से हँसने लगी। (किन्तु अपनी इस हँसी के कारण) सौतिन को लजीली होकर हँसते देख (यह समझा कि यह बेढंगा महावर नायक ने लगाया है) आधी हँसी में ही (दुःख से) लम्बी साँस लेने लगी।
बाढ़तु तो उर उरज-भरु भरि तरुनई बिकास
बोझनु सौतिनु कैं हियैं आवति रूँधि उसास॥472॥
उर = छाती। उरज-भरु = कुचों का भार! तरुनाई = जवानी। बिकास = खिलना। बोझनु = बोझ से। हियैं = हृदय में। उसास = उच्छ्वास, गर्म आइ, लम्बी साँस, दुःख भरी साँस।
जवानी के विकास से भरकर कुचों का भार बढ़ता जाता है तुम्हारी छाती पर, और उसके बोझ से रुँधी हुई उसासें आती हैं सौतिन के हृदय में (कैसा आश्चर्य है!)
ढीठि परोसिनी ईठि ह्वै कहे जु गहे सयानु।
सबै सँदेसे कहि कह्यौ मुसुकाहट में मानु॥473॥
ढीठि = ढिठाई से भरी, धृष्ट, शोख। ईठि = इष्ट-मित्र, सुहृद। सयानु गहैं = चतुराई के साथ।
धृष्ट पड़ोसिन ने मित्र बनकर जो कुछ कहने थे सो चतुराई के साथ कहे (और अन्त में कहा कि) इन सब सन्देशों को कहकर (अन्त में तुम्हारे प्रीतम ने) कहा है कि केवल मुस्कुराहट में मान कैसा?
नोट - कृष्ण कवि की सवैया से इसका भाव स्पष्ट हो जाता है- ”जाहिं परोसिन के दुख पीसों झुकी ललना रिस जी में ढिठाई। सो ही परोसिन ढीठ यहाँ लगि ईठ ह्वै याहि मनावन आई। प्रीतम के जे सँदेस हुते बे कहे सबही करिके चतुराई। येते पै मान कह्यौ मुसुकाय यहै कहि प्यार खरी कै रिसाई।“
चलत देत आभारु सुनि उहीं परोसिहिं नाह।
लसी तमासे की दृगनु हाँसी आँसुनु माँह॥474॥
आभारु = घर की देख-भाल का भार। नाह = नाथ, पति। लसी = शोभित हुई। तमासे की हँसी = कौतुक की हँसी। दृगनु = आँखों में। आँसुनु माँह = आँसुओं के बीच।
चलते समय अपने पति को उसी पड़ोसी (अपने गुप्त प्रेमी) को घर की देखभाल का भार देते सुनकर उसकी आँखों में आँसुओं के बीच कौतुक की हँसी शोभित हुई।
नोट - यद्यपि आँसू ढालकर ऊपर से वह दिखला रही है कि पति के (विदेश) जाने से वह दुःखित है; किन्तु यह देखकर कि घर की देख-रेख का भार उन्होंने पड़ोसी ही को सौंपा है, अतएव अब इस (अपने गुप्त प्रेमी) से खुलकर खेलने में कोई अड़चन न होगी, वह मन-ही-मन आनंदित भी हो रही है।
छला परोसिनि हाथ तैं छलु करि लियौ पिछानि।
पियहिं दिखायौ लखि बिलखि रिस-सूचक मुसुकानि॥475॥
छला = अँगूठी। छल करि = चालाकी या चालबाजी से। पिछानि = पहचानकर। लखि = देखती हुई। बिलखि = व्याकुल होकर।
उस अँगूठी को पहचानकर पड़ोसिन के हाथ से छल करके ले लिया और फिर व्याकुल होकर क्रोध-सूचक मुस्कुराहट के साथ (प्रीतम की ओर) देखती हुई प्रीतम को उसे दिखलाया (कि देखिए, यह आपकी अँगूठी उसकी अँगुली में कैसे गई!)
रहिहैं चंचल प्रान ए कहि कौन की अगोट।
ललन चलन की चित धरी कल न पलनु की ओट॥476॥
कहि = कहो। अगोट = अग्र+ओट = आड़। ललन = प्रीतम। चित धरी = इरादा किया है, निश्चय किया है। पलनु = पलकें, आँखें।
कहो, किसकी आड़ में ये चंचल प्राण (टिक) रहेंगे-कौन इन प्राणों को निकलने से रोक सकेगा? प्रीतम ने (विदेश) चलने की बात चित्त में धरी है और यहाँ आँखों की ओट होते ही कल नहीं पड़ती- (उन्हें देखे बिना क्षण-भर शान्ति नहीं मिलती)।
पूस मास सुनि सखिन पैं साँई चलत सवारु।
गहि कर वीन प्रबीन तिय राग्यौ रागु मलारु॥477॥
साँई = स्वामी, पति। सवारु = सबेरे। राग्यौ = गाया, अलापा।
पूस के महीनों में, सखियों से (यह) सुनकर कि कल प्रातःकाल प्रीतम (परदेश) जायँगे, वह सुचतुरा स्त्री हाथ में वीणा लेकर मलार-राग गाने लगी (ताकि मेघ बरसे और प्रीतम का परदेश जाना रुक जाय; क्यांेकि अकाल वृष्टि से यात्रा रुक जायगी।)।
नोट - संगीत-शास्त्र के अनुसार मलार-राग गाने से मेघ बरसता है और सुखद बरसात में रसिक पति परदेश नहीं जाते।
ललन चलनु सुनि चुपु रही बोलो आपु न ईठि।
राख्यौ गहि गाढ़ैं गरैं मनौ गलगली डीठि॥478॥
ललन = प्रीतम। ईठि = प्यारी सखी। गाढ़ैं गहि = जोर से पकड़कर। गरैं = गला। गलगली = आँसुओं से डबडबाई हुई। डीठि = आँख।
हे सखी, प्रीतम का (परदेश) चलना सुनकर वह चुप हो रही, स्वयं कुछ नहीं बोली, मानो डबडबाई हुई आँखों ने उसके गले को जोर से पकड़ रक्खा हो-(अश्रुगद्गद कंठ रुद्ध हो गया हो!)।
बिलखी डभकौहैं चखनु तिय लखि गवनु बराइ।
पिय गहबरि आऐं गरैं राखो गरैं लगाइ॥479॥
बिलखीं = व्याकुल। डभकौंहैं = डबडबाई हुई। गबनु बराइ = जाना रोककर। गहवरि आऐं गरैं = भर आये हुए गले से, गद्गद कंठ से।
व्याकुल और डबडबाई हुई आँखों से, नायिका को देश (परदेश) जाना रोककर प्रीतम ने गद्गद कंठ से उसे गले लगा रक्खा।
चलत चलत लौं लै चलैं सब सुख संग लगाइ।
ग्रीष्म-वासर सिसिर-निसि प्यौ मो पास बसाइ॥480॥
ग्रीषम-बासर = गरमी के दिन। सिसिर-निसि = जाड़े की रात।
(परदेश) चलते-ही-चलते सब सुखों को संग लगाकर ले चले-जाते-ही-जाते सब सुखों को साथ ले गये। हाँ, ग्रीष्म के (तपते हुए बड़े-बड़े) दिन और शिशिर की (ठिठुरानेवाली लम्बी-लम्बी) रातें (इन्हीं दो को) प्रीतम ने मेरे पास बसा दीं-रख छोड़ीं। (रात-दिन इतने बड़े-बड़े और भयंकर मालूम होते हैं कि काटे नहीं कटते-जाड़े की रात और गरमी के दिन बहुत बड़े होते भी हैं)।