ससोवत-जागत सपन-बस रस रिस चैन कुचैन।
सुरति स्यामघन की सुरति बिसरैं हूँ बिसरै न॥521॥
रस = प्रेम। रिस = क्रोध। सुरति = सु+रति = सुन्दर प्रीति। सुरति = स्मृति, याद। बिसरैं हूँ = विस्मृत करने या भुलाने से भी।
सोते, जागते और सपने में, स्नेह, क्रोध, सुख और दुःख में-सभी अवस्थाओं और सभी भावों में-घनश्याम (श्रीकृष्ण) के प्रेम की स्मृति भुलाये नहीं भूलती।
(सो.) कौड़ा आँसू-बूँद, कसि साँकर बरुनी सजल।
कीन्हे बदन निमूँद, दृग-मलिंग डारे रहत॥522॥
कौड़ा = कौड़ियों की माला। साँकर = जंजीर। बरुनी = पपनी, पलक के बाल। सजल = अश्रुयुक्त। बदन = मुख। निमूँद = खुला हुआ। मलिंग = फकीर। डारे रहत = पड़े रहते हैं।
आँसुओं की बूँदों को कौड़ियों की माला और सजल बरुनी को (अपनी कमर की) जंजीर बनाकर सदा मुख को खोले हुए (उस विरहिणी नायिका के) नेत्र-रूपी फकीर पड़े रहते हैं-डेरा डाले रहते हैं।
नोट - ‘मलिंग’ फकीर हाथों में कौड़ियों की माला रखते और कमर में लोहे की जंजीर पहनते हैं तथा सदा मुख खोले कुछ-न-कुछ जपते रहते हैं। विरहिणी के आँसू टपकाते और टकटकी लगाये हुए नेत्रों से यहाँ रूपक बाँधा गया है। ‘देव’ कवि ने शायद इसी सोरठे के आधार पर यह कल्पना की है-
”बरुनी बघम्बर में गूदरी पलक दोऊ कोये राते बसन भगोहैं भेख रखियाँ।
बूड़ी जल ही में दिन जामनी रहति भौंहैं घूम सिर छायो बिरहानल बिलखियाँ॥
आँसू ज्यौं फटिक माल लाल डोरे सेल्ही सजि भई है अकेली तजि चेली सँग सखियाँ।
दीजिये दरस ‘देव’ लीजिये सँजोगनि कै जोगिन ह्वै बैठी हैं बिजोगिन की अँखियाँ॥“
जिहिं निदाघ-दुपहर रहै भई माह की राति।
तिहिं उसीर की रावटी खरी आवटी जाति॥523॥
निदाघ = ग्रीष्म, जेठ-बैसाख। माह = माघ। उसीर = खस। रावटी = छोलदारी। खरी = अत्यन्त। आवटी जाति = औंटी जाती या संतप्त हो रही है।
जिस (रावटी) में ग्रीष्म की (जलती हुई) दुपहरी भी माघ की (अत्यन्त शीतल) रात-सी हुई रहती है, उस खस की रावटी में भी (यह विरहिणी नायिका विरह-ज्वाला से) अत्यन्त संतप्त हो रही है।
तच्यौ आँच अब बिरह की रह्यौ प्रेमरस भीजि।
नैननु कै मग जल बहै हियौ पसीजि-पसीजि॥524॥
तच्यौ = तपाया जाना, जलना। बिरह = वियोग। प्रेमरस (1) प्रेम का रस (2) प्रेम का जल।
(नायिका का हृदय) प्रेम के रस से भीजा हुआ था, और अब विरह की आँच में जल रहा है। (इसी कारण) हृदय पसीज-पसीजकर नेत्र के रास्ते से जल बह रहा है।
नोट - यह बड़ा सुन्दर रूपक है। हृदय (प्रेम-रूपी) पानी से भरा बर्तन है, विरह आँच है, आँखें नली हैं, आँसू अर्क है। अर्क चुलाने के लिए एक बर्तन में दवाइयाँ और पानी रख देते हैं। नीचे से आँच लगाते हैं। बर्तन में लगी हुई नली द्वारा अर्क चूता है। विरहिणी मानो साक्षात् रसायनशाला है।
स्याम सुरति करि राधिका तकति तरनिजा-ती/।
अँसुवनु करति तरौंस कौ खिनकु खरौंहौं नीरु॥525॥
सुरति = याद। तरनिजा = तरणि+जा = सूर्य की पुत्री, यमुना। तरौंस = तलछट। खिनकु = एक क्षण। खरौंहौं = खारा, नमकीन।
श्रीश्याम सुन्दर की याद कर (विरहिणी) राधिका (श्यामला) यमुना के तीर को देखती है और, आँसुओं (के प्रवाह) से एक क्षण में ही उसके गर्भस्थ जल को भी नमकीन बना देती हैं-(उसके नमकीन आँसुओं के मिलने से यमुना का तलछट-निचली तह-का पानी भी नमकीन हो जाता है।)
गोपिनु कैं अँसुवनु भरी सदा असोस अपार।
डगर-डगर नै ह्वै रही बगर-बगर कैं बार॥526॥
असोस = अशोष्य, जो कभी न सूखे। अपार = अगाध, अलंघनीय। डगर = गली। नै = नदी। बगर = घर। बार = द्वार, दरवाजा।
गोपियों के आँसुओं से भरी, कभी न सूखनेवाली और अपार नदियाँ (ब्रजमंडल के) घर-घर के द्वार पर और गली-गली में (प्रवाहित) हो रही है-(कृष्ण के विरह में गोपियाँ इतना रोती हैं कि व्रज की गली-गली में आँसुओं की नदियाँ बहती हैं।)
नोट - सूरदासजी ने भी गोपियों के आँसुओं की यमुना बहाई है-
”जब ते पनिघट आउँ सखीरी वा यमुना के तीर।
भरि भरि जमुना उमड़ि चलत है इन नैनन के नीर॥
इन नैनन के नीर सखीरी सेज भई घर नाव।
चाहत हौं ताही पै चढ़िकै हरिजू के ढिग जाव॥“
बन-बाटनु पिक-बटपरा तकि बिरहिन मतु मैन।
कुहौ-कुहौ कहि-कहि उठैं करि-करि राते नैन॥527॥
बाटनु = रास्ते में। पिक = कोयल। बटपरा = बटमार, लुटेरा, डाकू। मैनमतु = कामदेव की सलाह से। कुहौ-कुहौ =(1) कुहू-कुहू (2) मारो-मारो। राते = रक्त = लाल।
वन के रास्तों में कोयल-रूपी डाकू विरहिणियों को देख कामदेव की सम्मति से आँखें लाल-लाल कर ‘कुहौ-कुहौ’ (मारो-मारो) कह उठता है।
दिसि-दिसि कुसुमित देखियत उपवन बिपिन समाज।
मनो बियोगिनु कौं कियौ सर-पंजर रतिराज॥528॥
कुसुमित = फूले हुए। उपवन = फुलवारी। बिपिन = जंगल। समाज = समूह। सर-पंजर = बाणों का पिंजड़ा। रतिराज = कामदेव।
प्रत्येक दिशा में फुलवारियों और जंगलों के समूह फूले हुए दीख पड़ते हैं, मानो वियोगिनियों के लिए कामदेव ने बाणों का पिंजड़ा तैयार किया है- (ये चारों ओर के फूल विरहिणियों के हृदय को विदीर्ण करने में बाणों का काम देते हैं)।
नोट - कामदेव के बाण पुष्प के होते हैं। इसलिए चारों ओर खिले हुए पुष्प-पुंज को कामदेव का शर-पंजर कहा है। जैसे बाणों के पिंजड़े में कैदी जिधर देखेगा उधर ही चोखी-तीखी नोकें दीख पड़ेंगी, वैसे ही चारों ओर फूले हुए फूल विरहिणी की दृष्टि में चुभते हैं-दिल में खटकते हैं।
ही औरै-सी ह्वै गई टरी औधि कैं नाम।
दूजै कै डारी खरी बौरी बौरैं आम॥529॥
ही = हृदय। औधि = वादा, आने की तारीख। दूजैं = दूसरे। खरी = अधिक, पूरी। बौरी = पगली। बौरै = मँजराये हुए।
(एक तो) टली हुई अवधि के नाम से ही (यह सुनते ही कि प्रीतम अपने किये हुए वादे पर नहीं आयँगे) उसका हृदय कुछ और ही प्रकार का (उन्मना) हो गया था, दूसरे इन मँजराये हुए आमों ने उसे पूरी पगली बना डाला- (आम की मंजरी देखते ही वह एकदम पगली हो गई)।
भौ यह ऐसौई समौ जहाँ सुखद दुखु देत।
चैत-चाँद की चाँदनी डारति किए अचेत॥530॥
भौ = हो गया। ऐसौई = ऐसा ही। समौ = समय, जमाना। अचेत किए डारत = बेहोश किये डालती है।
यह ऐसा ही (बुरा) समय आ गया है कि जहाँ सुख देने वाला भी दुःख ही देता है। (देखो न, सखी!) चैत के चन्द्रमा की (सुखद) चाँदनी भी (इस विरहावस्था में) बेहोश किये डालती है।
नोट - ”अफ़सुर्दा दिल के वास्ते क्या चाँदनी का लुत्फ।
लिपटा पड़ा है मुर्दा-सा मानो कफन के साथ॥“