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बिहारी सतसई / भाग 57 / बिहारी

यह बसन्त न खरी अरी गरम न सीतल बातु।
कहि क्यौं प्रगटैं देखियतु पुलकु पसीजे गातु॥561॥

खरी = अतयन्त। अरी = ऐ सखी। बातु = हवा। कहि = कहो। प्रगटैं = प्रत्यक्ष। पुलकु = रोमांच। पसीजे = पसीने से लथपथ।

यह वसन्त ऋतु है। अरी सखी, न इसमें अत्यन्त गर्मी है और न (अत्यन्त) ठंडी हवा! कहो, फिर तुम्हारे पसीजे हुए-पसीने से लथपथ-शरीर में पुलकें प्रत्यक्ष क्यों दीख पड़ती हैं?

नोट - गर्मी से पसीना निकलता है और सर्दी में रोंगटे खड़े हो जाते हैं। प्रीतम के साथ तुरत रति-समागम करके आई हुई नायिका में ये दोनों ही चिह्न देखकर सखी परिहास करती है।


फिरि घर कौं नूतन पथिक चले चकित-चित भागि।
फूल्यौ देखि पलास-बन समुही समुझि दवागि॥562॥

तन = नवीन। पथिक = बटोही, परदेशी। चकित-चित = घबराकर। पलास = ढाक, किंशुक, लाल फूल का एक पेड़। समुही = सामने। दवागि = दावाग्नि, दावानल, जंगल की आग-जो आप-ही-आप (जंगलों में) उत्पन्न होकर सारे वन को स्वाहा कर डालती है।

पलास के वन को फूला देख, उसे अपने सामने ही दावाग्नि समझ (डर से) घबराकर नया बटोही लौटकर अपने घर की ओर भाग चला। (वसन्त ऋतु में फूले हुए पलास उसे दावाग्नि के समान जान पड़े।)


अंत मरैंगे चलि जरैं चढ़ि पलास की डार।
फिरि न मरैं मिलिहैं अली ए निरधूम अँगार॥563॥

चलि = चलो। डार = डाल। निरधूम = बिना धुएँ की। अँगार = आग।

(विरहिणी नायिका विरह के उन्माद में पलास के फूल को आग का लाल अंगार समझकर कहती है-) अन्त में मरना ही है, तो चलो, पलास की डाल पर चढ़कर जल जायँ। अरी सखी, फिर मरने पर ऐसी बिना धुएँ की आग नहीं मिलेगी।


नाहिन ए पावक-प्रबल लुवैं चलैं चहुँ पास।
मानहु विरह वसंत कैं ग्रीषम लेत उसास॥564॥

पावक-प्रबल = आग के समान प्रचंड। लुवैं = आँच भरी हवा, गर्म हवा के जबरदस्त झोंके (‘लू’ का बहुवचन ‘लवैं’)। चहुँ पास = चारों ओर। उसास = आह भरी ऊँची साँसें।

चारों ओर ये आग के समान प्रबल लुएँ नहीं चल रही हैं,प परन् वसंत के विरह में मानो ग्रीष्म-ऋतु लम्बी साँसें ले रही है-आह भर रही है।


कहलाने एकत बसत अहि-मयूर मृग-बाघ।
जगतु तपोवन सौ कियो दीरघ दाघ निदाध॥565॥

कहलाने = (1) कुम्हलाये हुए, गर्मी से व्याकुल (2) किसलिए। एकत = एकत्र। अहि = सर्प। दीरघ दाघ = कठोर गर्मी। निदाघ = ग्रीष्म।

(परस्पर कट्टर शत्रु होने पर भी) सर्प और मयूर तथा हिरन और बाघ किसलिए (गर्मी से व्याकुल होकर) एकत्र वास करते हैं-एक साथ रहते हैं? ग्रीष्म की कठोर गर्मी ने संसार को तपोवन-सा बना दिया।

नोट - इस दोहे के प्रथम चरण में एक खूबी है। उसमें प्रश्न और उत्तर दोनों हैं। प्रश्न है-सर्प और मयूर तथा मृग और बाघ किसलिए एकत्र बसते हैं? उत्तर गर्मी से व्याकुल होकर तपोवन में सभी जीव-जन्तु आपस में स्वाभाविक वैर-भाव भूलकर एक साथ रहते हैं। आचार्य केशवदास ने भी तपोवन का बड़ा सुन्दर वर्णन किया है-”केसोदास मृगज बछेरू चूमैं बाघनीन चाटत सुरभि बाघ-बालक-बदन है। सिंहिन की सटा ऐंचे कलभ करिनि कर सिंहन के आसन गयन्द के रहन है॥ फनी के फनन पर नाचत मुदित मोर क्रोध न विरोध जहाँ मद न मदन है। बानर फिरत डोरे-डोरे अन्घ तापसनि सिव की मसान कैधौं ऋषि को सदन है।“


बैठि रही अति सघन बन पैठि सदन तन माँह।
देखि दुपहरी जेठ की छाँहौं चाहति छाँह॥566॥

सघन = घना। सदन = घर। तन = शरीर। छाँहौं = छाया भी।

(छाया या तो) अत्यन्त सघन वन में बैठ रही है (या बस्ती के) घर और (जीव के) शरीर में घुस गई है। (मालूम पड़ता है) जेठ-मास की (झुलसाने वाली) दुपहरी देखकर छाया भी छाया चाहती है।

नोट - जेठ की दुपहरी में सूर्य ठीक सिर के ऊपर (मध्य आकाश में) रहता है। अतः सब चीजों की छाया अत्यन्त छोटी होती है। पेड़ की छाया ठीक उसकी डालियों के नीचे रहती है। घर की छाया घर में ही घुसी रहती है-दीवार से नीचे नहीं उतरती। शरीर की छाया भी नहीं दीख पड़ती-परछाई पैरों के नीचे जाती है, मानों वह भी शरीर में ही घुस गई हो। वाह वा! इस दोहे से बिहारी के प्रकृति-निरीक्षण-नैपुण्य का कैसा उत्कृष्ट परिचय मिलता है!


तिय-तरसौहैं मन किए करि सरसौंहैं नेह।
धर परसौंहैं ह्वै रहे झर बरसौंहैं मेह॥567॥

तिय तरसौंहैं = स्त्री पर ललचने वाले। सरसौंहैं = रसीला, सरस। घर = धरा, पृथ्वी। परसौंहैं = स्पर्श करने वाले। बरसौंहैं = बरसने वाले।

(वर्षा ने) प्रेम को सरस बनाकर मन को स्त्री के लिए ललचने वाला बना दिया-(वर्षा आते ही प्रेम जग गया और स्त्री के साथ भोग-विलास करने को मन मचल गया) और, झड़ी लगाकर बरसने वाले मेघ पृथ्वी को स्पर्श करने वाले हो गये-(मेघ इतने नीचे आकर बरसते हैं, मानो वे पृथ्वी का आलिंगन कर रहे हों)।


पावस निसि-अँधियार मैं रह्यौ भेदु नहिं आनु।
राति-द्यौस जान्यौ परतु लखि चकई-चकवानु॥568॥

पावस = वर्षा ऋतु। निसि = रात। भेदु = फर्क, अन्तर। आन = अन्य, दूसरा। द्यौस = दिन।

पावस और रात के अन्धकार में अन्य भेद नहीं रहा-(पावस का अंधकार और रात का अंधकार एक समान हो रहा है), चकई और चकवे को देखकर ही रात-दिन जान पड़ते हैं-(जब चकवे और चकई को लाग एक साथ देखते हैं, तब समझते हैं कि दिन है; फिर जब उन्हें बिछुड़ा देखते हैं, तब समझते हैं कि रात है)।

नोट - रात में चकवा-चकई एक साथ नहीं रहते।


छिनकु चलति ठिठकति छिनकु भुज प्रीतम-गल डारि।
चढ़ी अटा देखति घटा बिज्जु-छटा-सी नारि॥569॥

छिनकु = एक क्षण। ठिठकति = रुककर खड़ी हो जाती है। अटा = कोठा, अटारी। बिज्जु-छटा = बिजली की दमक।

एक क्षण चलती है, और दूसरे ही क्षण प्रीतम के गलबँहियाँ डालकर ठिठककर खड़ी हो जाती है। (इस प्रकार) बिजली की दमक के समान वह स्त्री कोठे पर चढ़कर (मेघ की) छटा देख रही है।


पावक-झर तैं मेह-झर दाहक दुसह बिसेखि।
दहै देह वाकै परस याहि दृगनु ही देखि॥570॥

झर = (1) लपट (2) झड़ी। दहे = जलना। दृगनु = आँखों से।

आग की लपट से मेघ की झड़ी (कहीं) अधिक जलाने वाली और असहनीय (मालूम होती) है, क्योंकि उस (आग की लपट) के स्पर्श से देह जलती है, और इस (मेघ की झड़ी) को आँखों से देखने ही से (विरहाग्नि भड़ककर देह को भस्म कर देती है)।