Last modified on 14 जून 2008, at 20:51

बीच समुंदर गोपी चंदर / चंद्रभूषण

इतने जहाजों में इतनी बार

इतने मुल्क़ों का सफ़र

गया नहीं फिर भी मन से

ऊँचा उड़ने का डर

अछोर खालीपन में खूँटी खोजते

नज़र गड़ाए रखना

अधर में अटके पंख की रौशनी पर

ख़ुद में क्या कुछ कम यातना है-

ऊपर से दिल में धँसती

टर्बो की घर-घर-घर


ओह, क्या दिख गया अचानक

चटख सप्तर्षि की सीढ़ियाँ चढ़ता

लांड्री से धुलकर आया

झक्क सफ़ेद चांद

ये रात भीगी-भीगी ये मस्त फिजाएँ

उठा धीरे-धीरे...ये चांद भी कैसा

कि जिसकी कोई चांदनी नहीं है


उठो चांदनी... देखो चांद

कहते-कहते रुक गई जुबान

कि जहाज की बहुत हल्की रौशनी में खोया

ज़र्द चेहरा कहीं और ही नज़र आया

कि लंबे सफ़र में टूट कर उचट गई नींद

तो पता नहीं फिर लौटे न लौटे

कि क्या असर डाले गर्भ की जैविकी पर

नीचे थिरकती क्षितिज टटोलती

ज्वारमय अटलांटिक की औचक कौंध


नई दुनिया में पुराने लोग

सदा अजनबी होंगे सदा पराए

पेट का बच्चा लेकिन रहेगा अमेरिकी

जाति धर्म नस्ल वर्ण वर्ग देश

अच्छे-बुरे इतने सारे नाते-

सब के सब ज़मीन के

कुछ भी तो नहीं यहाँ

ज़मीन से सात मील ऊपर

ज़रा सी गड़बड़ी रत्ती भर चूक

फिर कैसा अमेरिका कहाँ का हिंदुस्तान


काले समुंदर काले आकाश बीच

आँखों में मिर्च-सा लगता

पंख के छोर पर जलता लाल बल्ब

पीछे अपने लकीर छोड़ आया है

कई हजार मील कई सौ साल लंबी

सुखों सी शक्ल वाले दुखों की लकीर

जहां‍ दर्ज है कुछ करोड़ मौतों का हिसाब

जिसके हाशियों में कहीं जिंदगी कैद है


इसी लकीर पर चलते-चलते

बीत चली है अब अपनी भी रात

इस रतजगे की रात में

नींद भर सोई ओ चांदनी

जागने के बाद अगर हो सके तो

आज का कोई सपना बचा रखना

सौंप देना उसे अपने नन्हें अमेरिकी को

पास जिसके होंगे सारे सरंजाम

पर सब कुछ के बाद शायद यही नहीं होगा।