रात्रि की निस्तब्ध बेला, मौन प्रहरी,
सो चुकी है दिवस की चिड़िया सुनहरी;
शांत वन हैं, जड़ हवाएँ सरसरातीं,
चुप हैं चानन और गंगा, हरहरातीं।
जागता है रात्रि के संग कर्ण केवल,
बुद्धि के संवाद से है चित्त चंचल;
घेरती बातें विगत की, नील-फेनिल,
किस तरह से रूप धरकर दीप्त, धूमिल।
दृश्य सारे खुल रहे हैं उठ अतल से,
बोलती सुधियाँ बहुत हैं आजकल से;
क्या तुम्हें कुछ याद है, वसुषेन बोलो,
छिप रहे जो मन के कोनों में, टटोलोµ
जागती जब रात की थी मध्य वेला,
कर्ण वन को जा निकलता था अकेला;
तीर, तरकश, धनुष कंधों पर उठाए,
तेज गति से, ज्यों कोई वन से बुलाए.
हाँ, बुलाता ही कोई था बीच वन से,
दीप्त रवि-सा वह पुरुष वन सघन घन से;
नींद में बेसुध हुई-सी सृष्टि होती,
साधना तब लक्ष्य को सारे संजोती।
जागता था गहन वन में कर्ण-कौशल,
हर घड़ी, हर क्षण लिए ही रूप प्रतिपल;
जागता था रश्मियों का पुरुष सम्मुख,
ले रहा आदेश जिससे कर्ण झुक-झुक।
दे रहा आदेश जो था सामने से,
जागते थे सब, कहाँ कब अनमने-से?
मुग्ध होती अंग की चम्पा न सोती,
रात भर भागीरथी सपने संजोती।
रात भर आशीष देती थी हवाएँ,
भोर होते सोचती किस कोण जाएँ।
जागती ज्यों रात की थी मध्य वेला,
जागता संकल्प के संग शौर्य-मेला।
गूँजती टंकार पल-पल उस विजन में,
आँधियाँ उठती हुई-सी हवा वन में;
और क्षण-क्षण वाह के आशीष खुल कर,
पत्थरों के बीच बहता हो; ज्यों निर्झर।
आ गई सुधि, विस्मृति की नींद ओझल,
खुल रहे हैं दृश्य सारे; दिवस झलमल
रोक लेते कर्ण को जब तात आकर,
बोध देता अंग की महिमा सुना कर µ
" भूमि यह शृंगी, विभांडक, जद्दु की है,
यह न अष्टावक्र की ही, राम की है;
हाथ में जो हैं निरन्तर परशु धारे,
क्रोध में आए तो गिन-गिन कर संहारे।
" अंग वह है, देश, गाधिसुत जहाँ के,
और दुर्वासा कहाँ के हैं? यहाँ के;
जो तुम्हारे जन्म के नेपथ्य में हैं,
एक दिन जानोगे जो-जो सत्य में हैं।
" माँ तुम्हारी तो पृथा ही, सत्य मानो,
और जिसको माँ कहो, वह धाय जानो!
पर कहाँ कुछ भी पृथा से कम कहूँ मैं,
कुछ अलग है पीर जिसमें ही दहूँ मैं।
" मन कहे, कौन्तेय तुमको कह न पाता,
बस मुझे राधेय पर है खींच लाता;
हो रही होगी भी कुन्ती कम दुखी क्या,
इस जगत में देवता भी है सुखी क्या!
" वृष्णिकुल की जो पृथा, सम्पन्न श्री से,
पुत्राी कुन्ती भोज की, कुन्ती इसी से;
धन्य है धन्या यहाँ की, कुंती-माता,
यह कथा बन कर रहेगी लोकगाथा।
" तुम उसी के पुत्रा हो, सुन वत्स खुल कर,
पुण्य होता जा रहा दुख-दाह घुल कर;
वत्स मेरे, मैं तुम्हारा ही पिता हूँ,
तुम धरा के रवि बनो, मैं चाहता हूँ।
" कर्म का यश, ज्ञान का यश, राज का यश,
हो तुम्हारी मुट्ठी में। सब दूर अपयश।
मोह न बांधे तुम्हें धन-राज का ही,
तुम सिंहासन पर रहो संन्यासी-सा ही।
" अंग के तुम भूप होगे, यह तो निश्चित,
पर भुलाना तुम नहीं ये बात किंचित;
अंग के अनुकूल सारे आचरण हो,
इस धरा पर स्वर्ग का फिर संचरण हो।
" सारी विद्याओं-कलाओं से भरे तुम,
अब रहोगे क्या किसी के आसरे तुम?
जिस तरह से अस्त्रा का संधान करते,
प्राप्त करते फल, गुरु का ध्यान करते।
" शूल हो कि हो शतघ्नी, हस्तिवारक,
प्राश हो कि प्राशिका हो या कि हाटक;
कुन्त हो या हो कणय, या और तोमर,
या गदा-संपृक्तला हो, या कि मुद्गर;
" धनुष चाहे ताल हो, शारंग, दारव,
चाप ही वह क्यों न हो जो दिव्य नव-नव,
कार्मुक, कोदण्ड द्रुण जिस भार में हो,
वेणु, या नाराच हो; लाचार में हो।
" ब्रह्म के ही तेज से सम्पन्न हो तुम,
ब्रह्म के ही तेज से उत्पन्न हो तुम;
कर्म से और वंश से तुम क्षत्रिय कुल के,
लाल हो तुम संत अधिरथ के दुकुल के.
" सृष्टि की श्री-सम्पदा होगी चरण पर,
देवता रीझे तुम्हारे आचरण पर;
पर कभी जो भूल से भी भूल होगी,
तब कोई क्या शक्ति भी अनुकूल होगी?
" इसलिए सुधि नीति की, न संग छूटे,
देवता के कर्म की लय जा न टूटे;
यह धरा संतप्त है अगिणत दुखों से,
जिसको भरना है तुम्हें सारे सुखों से।
" वह जो सबसे दीन है और दलित है जो,
पर सुकर्मों से सुधामय ललित है जो;
उसकी रक्षा में तुम्हारे प्राण अर्पित,
जो मुझे था, कर दिया सारा समर्पित।
" और जो आगे मिलेगा, साधना से,
माँ, पिता, गुरु की मिलित आराधना से;
अंग की पावन ये धरती हो समुज्जवल,
स्वर्ग के सुन्दर सरोवर में, ज्यों उत्पल।
" भूमि, वन, नदियाँ, हवाएँ सुख से सिहरे,
आज से न प्राणियों के प्राण हहरे;
अब तुम्हारी रश्मियाँ ही घेर ले जग,
हो जहाँ तक, उस जगह पर ज्योति जगमग।
" हो निशा के वक्ष पर शशि पूर्णिमा का,
देवता-सा हो हृदय पुलकित अमा का।
लौट आए सत्य का युग देह धारे,
उठ अतल से प्राण-आज्ञा के सहारे।
छिप गया था सूर्य तब तत्क्षण अचानक,
फैलता आलोक था; ज्यों ब्रात-ब्राजक;
दीप्त तम में रश्मियों का वह पुरुष था,
था कभी न, आज वह, जैसा कि खुश था।
देह में जैसे प्रकट हों देव सारे,
सारी ऋतुएँ ही प्रकट उसके सहारे;
घाम, वर्षा, शीत संग मधुमास जिसमें,
शरत का, हेमन्त का कलहास जिसमें।
जुगनुओं से झूलते; ज्यों, काल सब थे,
चित्रा से अंकित लगे दिकपाल सब थे;
मुँद गई हैं कर्ण की आँखें विभा से,
दीप्त हैं पूरा सघन वन ही प्रभा से।
और जब आँखें खुलीं तो कुछ नहीं है,
जो घटा, वह झूठ था या फिर सही है!
कर्ण कुछ भी सोच न पाता जरा-सा,
हर्ष से पुलकित, सुखों से है भरा-सा।
सोचता है जोर देकर, कर्ण मन से,
" क्या पिता ही थे, अभी उतरे गगन से?
रश्मियों के देवता का अंश हूँ मैं?
इस धरा पर देवकुल का वंश हूँ मैं?
" पर, नहीं, यह सोचना भी पाप होगा,
मृत्य मानव के लिए अभिशाप होगा।
और जो मैं सच? दिखा जो, झूठ था क्या?
आँख से देखा हुआ है, कैसे मिथ्या!
" जो नहीं माता पृथा, तो क्यों लगा यह,
देह को सहला रही हो कोई रह-रह!
क्यों अचानक माँ की ममता से बँधाया,
एक पल में पा गया, जिसको न पाया।
" आज जो कुछ जान पाया, क्या सही है?
क्यों गगन चुप है? पवन, जल या मही है?
जो नहीं। वह कौन थे? कैसा वचन था?
जिनमें सारी भूमि थी, सारा गगन था।
" मोह मेरा? भ्रांति मेरी? क्या हुआ था?
एक क्षण में क्या से-क्या मुझको लगा था!
जो गुरु हैं, वह पिता हैं; क्या ये सच है?
किस द्विधा का आज हृद में शोर-वच है?
" पूर्ण शिक्षा हो गई है, पर अभी भी,
आँख से ओझल नहीं होते कभी भी।
बस यही लगता, खड़े हैं सामने में,
क्यों हुआ धोखा मुझे यह जानने में?
" क्या नहीं आश्चर्य है यह, सोचता हूँ,
बोलते थे मेरे मन की, मैं यथा हूँ;
' उस दिशा में अस्त्रा फेको, वनरहित है,
वह उधर है वृक्ष, जो कलरव सहित है।
'उस तरफ वनराज के शावक दिखे थे'
पढ़ रहे थे मेरे मन पर जो लिखे थे;
किस तरह पढ़ते गये थे मेरे मन को,
चाँद जैसे जानता सारे गगन को।
" यह जो मुझमें द्वन्द्व की है आज हलचल,
खिल नहीं पाता है मन का श्वेत शतदल;
क्या नहीं यह ज्ञात होगा, तात को ही?
शील के विपरीत मैं हूँ आज द्रोही।
" पर उठा जो द्वन्द्व है, यह भी तो सच है,
पीर है मेरे हृदय की जो अवच है;
खींचता है कौन पीछे से मुझे यह?
कौन चन्दनवन, अरे कैसा कमलदह?
" भर गये रश्मिदिविषद चाह मन में,
इस अमा में चाँद कैसे है गगन में?
पक्ष बीते, माह बीते, और वत्सर,
आज भी यह बोध उनके हाथ सर पर।
" यह नहीं भ्रम, सत्य है, कुछ और ऊपर,
देवता थे, आए थे बन तात भू पर।
और फिर शंका वही मन तोड़ जाती,
तप्त मरु में, दोपहर में, छोड़ जाती।
" भर भुवन में ज्यों अकेला हो गया हूँ,
आग की ही सेज पर मैं सो गया हूँ;
कौन मुझको द्वन्द्व से बाहर करेगा?
कष्ट मन का है; कोई तपसी हरेगा।
" सौ कलाएँ तात मुझको दे गये, पर,
फेंकता है कौन मन पर वज्र-वामर?
मुक्त होना ही पड़ेगा, भूत-कर से,
आ रहा जैसा निमंत्राण हो उधर से।
" यह अगति है, मोह में बँध कर तड़पना,
अंधकारा को मुझे होगा छड़पना;
अन्यथा मुझको यही अब लील लेगा,
मोहगंगा है तो क्या सरसिज खिलेगा?
" क्यों पड़ँ़ ू मैं इस द्विधा में, इस कथा में,
कौन-सा आनन्द बसता इस व्यथा में?
मैं तो हूँ राधेय, अधिरथपुत्रा हूँ मैं,
बस इसी पहचान से सर्वत्रा हूँ मैं। "
और आई ं यादें सब बातें विगत की,
जेठ के दिन और वे रातें शरत की,
मन में उठते मेघ काले, बिजलियाँ ले,
फिर तुरत मधुमास आता तितलियाँ ले,
गूँजता यह मन-हृदय किस शोर से है।
बँध गया-सा कर्ण किसकी डोर से है?